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श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
सप्तम सोपान (उत्तरकाण्ड)

केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ॥ 1 ॥

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।
जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसड्गिनौ ॥ 2 ॥

कुन्दिन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्।
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ॥ 3 ॥

दो. रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम बियोग ॥
सगुन होहिं सुन्दर सकल मन प्रसन्न सब केर।
प्रभु आगवन जनाव जनु नगर रम्य चहुँ फेर ॥
कौसल्यादि मातु सब मन अनन्द अस होइ।
आयु प्रभु श्री अनुज जुत कहन चहत अब कोइ ॥
भरत नयन भुज दच्छिन फरकत बारहिं बार।
जानि सगुन मन हरष अति लागे करन बिचार ॥
रहेउ एक दिन अवधि अधारा। समुझत मन दुख भयु अपारा ॥
कारन कवन नाथ नहिं आयु। जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायु ॥
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिन्दु अनुरागी ॥
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ सङ्ग नहिं लीन्हा ॥
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कलप सत कोरी ॥
जन अवगुन प्रभु मान न क्AU। दीन बन्धु अति मृदुल सुभ्AU ॥
मोरि जियँ भरोस दृढ़ सोई। मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई ॥
बीतें अवधि रहहि जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना ॥

दो. राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयु जनु पोत ॥ 1(क) ॥

बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात।
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥ 1(ख) ॥

देखत हनूमान अति हरषेउ। पुलक गात लोचन जल बरषेउ ॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी। बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती। रटहु निरन्तर गुन गन पाँती ॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता। आयु कुसल देव मुनि त्राता ॥
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत ॥
सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावन्त जिमि पाइ पियूषा ॥
को तुम्ह तात कहाँ ते आए। मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना। नामु मोर सुनु कृपानिधाना ॥
दीनबन्धु रघुपति कर किङ्कर। सुनत भरत भेण्टेउ उठि सादर ॥
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ॥
कपि तव दरस सकल दुख बीते। मिले आजु मोहि राम पिरीते ॥
बार बार बूझी कुसलाता। तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ॥
एहि सन्देस सरिस जग माहीं। करि बिचार देखेउँ कछु नाहीम् ॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही। अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ॥
तब हनुमन्त नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा ॥
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईम् ॥

छं. निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो ॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिन्धु सो ॥

दो. राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात ॥ 2(क) ॥

सो. भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयु कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़इ ॥ 2(ख) ॥

हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए ॥
पुनि मन्दिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई ॥
सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ॥
समाचार पुरबासिंह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए ॥
दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मङ्गल मूला ॥
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिन्धु सिन्धुरगामिनी ॥
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ सङ्ग न लावहिम् ॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई ॥
अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भी सकल सोभा कै खानी ॥
बहि सुहावन त्रिबिध समीरा। भि सरजू अति निर्मल नीरा ॥

दो. हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृन्द समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ॥ 3(क) ॥

बहुतक चढ़ई अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमङ्गल गान ॥ 3(ख) ॥

राका ससि रघुपति पुर सिन्धु देखि हरषान।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरङ्ग समान ॥ 3(ग) ॥

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ॥
सुनु कपीस अङ्गद लङ्केसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा ॥
जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना ॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसङ्ग जानि कौ कोऊ ॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा ॥
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी ॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी ॥

दो. आवत देखि लोग सब कृपासिन्धु भगवान।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ॥ 4(क) ॥

उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ॥ 4(ख) ॥

आए भरत सङ्ग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ॥
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ॥
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ॥
भेण्टि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ॥
सकल द्विजन्ह मिलि नायु माथा। धर्म धुरन्धर रघुकुलनाथा ॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पङ्कज। नमत जिन्हहि सुर मुनि सङ्कर अज ॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिन्धु उर लाए ॥
स्यामल गात रोम भे ठाढ़ए। नव राजीव नयन जल बाढ़ए ॥

छं. राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिङ्गार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ॥ 1 ॥

बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवी।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावी ॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ॥ 2 ॥

दो. पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेण्टे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दौ भाइ ॥ 5 ॥

भरतानुज लछिमन पुनि भेण्टे। दुसह बिरह सम्भव दुख मेटे ॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा ॥
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी ॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला ॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी ॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना ॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा ॥
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ॥

छं. जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गीं।
दिन अन्त पुर रुख स्त्रवत थन हुङ्कार करि धावत भी ॥
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गि बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ॥

दो. भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ॥ 6(क) ॥

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ॥ 6 ॥

सासुन्ह सबनि मिली बैदेही। चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता ॥
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मङ्गल जानि नयन जल रोकहिम् ॥
कनक थार आरति उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिम् ॥
नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानन्द हरष उर भरहीम् ॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिन्धु रनधीरहि ॥
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लङ्कापति मारा ॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे ॥

दो. लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानन्द मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ॥ 7 ॥

लङ्कापति कपीस नल नीला। जामवन्त अङ्गद सुभसीला ॥
हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा ॥
भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ॥
देखि नगरबासिंह कै रीती। सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ॥
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए ॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भे समर सागर कहँ बेरे ॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भे। निमिष निमिष उपजत सुख ने ॥

दो. कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायु माथ ॥
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ॥ 8(क) ॥

सुमन बृष्टि नभ सङ्कुल भवन चले सुखकन्द।
चढ़ई अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृन्द ॥ 8(ख) ॥

कञ्चन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ॥
बन्दनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मङ्गल हेतू ॥
बीथीं सकल सुगन्ध सिञ्चाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराई ॥
नाना भाँति सुमङ्गल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे ॥
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीम् ॥
कञ्चन थार आरती नाना। जुबती सजें करहिं सुभ गाना ॥
करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर केम् ॥
पुर सोभा सम्पति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना ॥
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीम् ॥

दो. नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भेँ बिगसत भीं निरखि राम राकेस ॥ 9(क) ॥

होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ॥ 9(ख) ॥

प्रभु जानी कैकेई लजानी। प्रथम तासु गृह गे भवानी ॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ॥
कृपासिन्धु जब मन्दिर गे। पुर नर नारि सुखी सब भे ॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई ॥
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचन्द्र बैठहिं सिङ्घासन ॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ॥
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका ॥
अब मुनिबर बिलम्ब नहिं कीजे। महाराज कहँ तिलक करीजै ॥

दो. तब मुनि कहेउ सुमन्त्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ॥ 10(क) ॥

जहँ तहँ धावन पठि पुनि मङ्गल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायु आइ ॥ 10(ख) ॥

नवान्हपारायण, आठवाँ विश्राम
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे ॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई ॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई ॥
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए ॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अङ्ग अनङ्ग देखि सत लाजे ॥

दो. सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥ 11(क) ॥

राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥ 11(ख) ॥

सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृन्द।
चढ़इ बिमान आए सब सुर देखन सुखकन्द ॥ 11(ग) ॥

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा। तुरत दिब्य सिङ्घासन मागा ॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई। बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥
जनकसुता समेत रघुराई। पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥
बेद मन्त्र तब द्विजन्ह उचारे। नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा। पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी। बार बार आरती उतारी ॥
बिप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे। जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥
सिङ्घासन पर त्रिभुअन साई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाईम् ॥

छं. नभ दुन्दुभीं बाजहिं बिपुल गन्धर्ब किन्नर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृन्द परमानन्द सुर मुनि पावहीम् ॥
भरतादि अनुज बिभीषनाङ्गद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ॥ 1 ॥

श्री सहित दिनकर बंस बूषन काम बहु छबि सोही।
नव अम्बुधर बर गात अम्बर पीत सुर मन मोही ॥
मुकुटाङ्गदादि बिचित्र भूषन अङ्ग अङ्गन्हि प्रति सजे।
अम्भोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखन्ति जे ॥ 2 ॥

दो. वह सोभा समाज सुख कहत न बनि खगेस।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥ 12(क) ॥

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गे सुर निज निज धाम।
बन्दी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥ 12(ख) ॥

प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥ 12(ग) ॥

छं. जय सगुन निर्गुन रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकन्धरादि प्रचण्ड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥
अवतार नर संसार भार बिभञ्जि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु सञ्जुक्त सक्ति नमामहे ॥ 1 ॥

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पन्थ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥ 2 ॥

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥ 3 ॥

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बन्दिता त्रेलोक पावनि सुरसरी ॥
ध्वज कुलिस अङ्कुस कञ्ज जुत बन फिरत कण्टक किन लहे।
पद कञ्ज द्वन्द मुकुन्द राम रमेस नित्य भजामहे ॥ 4 ॥

अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कन्ध साखा पञ्च बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥ 5 ॥

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीम् ॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीम् ॥ 6 ॥

दो. सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अन्तर्धान भे पुनि गे ब्रह्म आगार ॥ 13(क) ॥

बैनतेय सुनु सम्भु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥ 13(ख) ॥

छं. जय राम रमारमनं समनं। भव ताप भयाकुल पाहि जनम् ॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥ 1 ॥

दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर बृन्द पतङ्ग रहे। सर पावक तेज प्रचण्ड दहे ॥ 2 ॥

महि मण्डल मण्डन चारुतरं। धृत सायक चाप निषङ्ग बरम् ॥
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुञ्ज दिवाकर तेज अनी ॥ 3 ॥

मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे ॥ 4 ॥

बहु रोग बियोगन्हि लोग हे। भवदङ्घ्रि निरादर के फल ए ॥
भव सिन्धु अगाध परे नर ते। पद पङ्कज प्रेम न जे करते ॥ 5 ॥

अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह के पद पङ्कज प्रीति नहीम् ॥
अवलम्ब भवन्त कथा जिन्ह के ॥ प्रिय सन्त अनन्त सदा तिन्ह केम् ॥ 6 ॥

नहिं राग न लोभ न मान मदा ॥ तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ 7 ॥

करि प्रेम निरन्तर नेम लिएँ। पद पङ्कज सेवत सुद्ध हिएँ ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब सन्त सुखी बिचरन्ति मही ॥ 8 ॥

मुनि मानस पङ्कज भृङ्ग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी ॥ 9 ॥

गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरन्तर श्रीरमनम् ॥
रघुनन्द निकन्दय द्वन्द्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनम् ॥ 10 ॥

दो. बार बार बर मागुँ हरषि देहु श्रीरङ्ग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसङ्ग ॥ 14(क) ॥

बरनि उमापति राम गुन हरषि गे कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥ 14(ख) ॥

सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख सम्पति नाना बिधि पावहिम् ॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अन्तकाल रघुपति पुर जाहीम् ॥
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषी। लहहिं भगति गति सम्पति नी ॥
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥
बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी। मोह नदी कहँ सुन्दर तरनी ॥
नित नव मङ्गल कौसलपुरी। हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥
नित नि प्रीति राम पद पङ्कज। सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥
मङ्गन बहु प्रकार पहिराए। द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥

दो. ब्रह्मानन्द मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने दिवस तिन्ह गे मास षट बीति ॥ 15 ॥

बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह सन्त मन माही ॥
तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए ॥
परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु बचन उचारे ॥
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि बिधि करौं बड़आई ॥
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे। मम हित लागि भवन सुख त्यागे ॥
अनुज राज सम्पति बैदेही। देह गेह परिवार सनेही ॥
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना। मृषा न कहुँ मोर यह बाना ॥
सब के प्रिय सेवक यह नीती। मोरें अधिक दास पर प्रीती ॥

दो. अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम ॥ 16 ॥

सुनि प्रभु बचन मगन सब भे। को हम कहाँ बिसरि तन गे ॥
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे ॥
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिध बिधि ग्यान बिसेषा ॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिम् ॥
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रङ्ग अनूप सुहाए ॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए ॥
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लङ्कापति रघुपति मन भाए ॥
अङ्गद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला ॥

दो. जामवन्त नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ ॥ 17(क) ॥

तब अङ्गद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि ॥ 17(ख) ॥

सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिन्धो। दीन दयाकर आरत बन्धो ॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयु तुम्हारेहि कोञ्छें घाली ॥
असरन सरन बिरदु सम्भारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना ॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहुँ। पद पङ्कज बिलोकि भव तरिहुँ ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही ॥

दो. अङ्गद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायु सजल नयन राजीव ॥ 18(क) ॥

निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ ॥ 18(ख) ॥

भरत अनुज सौमित्र समेता। पठवन चले भगत कृत चेता ॥
अङ्गद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा ॥
बार बार कर दण्ड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा ॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी ॥
प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पङ्कज राखी ॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए ॥
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना ॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहुँ देवा ॥
पुन्य पुञ्ज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा ॥
अस कहि कपि सब चले तुरन्ता। अङ्गद कहि सुनहु हनुमन्ता ॥

दो. कहेहु दण्डवत प्रभु सैं तुम्हहि कहुँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि ॥ 19(क) ॥

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयु हनुमन्त।
तासु प्रीति प्रभु सन कहि मगन भे भगवन्त ॥ !9(ख) ॥

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परि कहु काहि ॥ 19(ग) ॥

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा ॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू ॥
तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता ॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी ॥
चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा ॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी ॥
राम राज बैण्ठें त्रेलोका। हरषित भे गे सब सोका ॥
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई ॥

दो. बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ॥ 20 ॥

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीम् ॥
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी ॥
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा ॥
नहिं दरिद्र कौ दुखी न दीना। नहिं कौ अबुध न लच्छन हीना ॥
सब निर्दम्भ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी ॥
सब गुनग्य पण्डित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी ॥

दो. राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिम् ॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिम् ॥ 21 ॥

भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला ॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी ॥
सौ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥
सौ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥
राम राज कर सुख सम्पदा। बरनि न सकि फनीस सारदा ॥
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥

दो. दण्ड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र कें राज ॥ 22 ॥

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहि एक सँग गज पञ्चानन ॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़आई ॥
कूजहिं खग मृग नाना बृन्दा। अभय चरहिं बन करहिं अनन्दा ॥
सीतल सुरभि पवन बह मन्दा। गूञ्जत अलि लै चलि मकरन्दा ॥
लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीम् ॥
ससि सम्पन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भि कृतजुग कै करनी ॥
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी ॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीम् ॥
सरसिज सङ्कुल सकल तड़आगा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥

दो. बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज ॥ 23 ॥

कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे। दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ॥
श्रुति पथ पालक धर्म धुरन्धर। गुनातीत अरु भोग पुरन्दर ॥
पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील बिनीता ॥
जानति कृपासिन्धु प्रभुताई। सेवति चरन कमल मन लाई ॥
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ॥
निज कर गृह परिचरजा करी। रामचन्द्र आयसु अनुसरी ॥
जेहि बिधि कृपासिन्धु सुख मानि। सोइ कर श्री सेवा बिधि जानि ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं। सेवि सबन्हि मान मद नाहीम् ॥
उमा रमा ब्रह्मादि बन्दिता। जगदम्बा सन्ततमनिन्दिता ॥

दो. जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ।
राम पदारबिन्द रति करति सुभावहि खोइ ॥ 24 ॥

सेवहिं सानकूल सब भाई। राम चरन रति अति अधिकाई ॥
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं। कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीम् ॥
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती ॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ॥
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्रीरघुबीर चरन रति चहहीम् ॥
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ॥
दौ बिजी बिनी गुन मन्दिर। हरि प्रतिबिम्ब मनहुँ अति सुन्दर ॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भे रूप गुन सील घनेरे ॥

दो. ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानन्द घन कर नर चरित उदार ॥ 25 ॥

प्रातकाल सरू करि मज्जन। बैठहिं सभाँ सङ्ग द्विज सज्जन ॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिम् ॥
अनुजन्ह सञ्जुत भोजन करहीं। देखि सकल जननीं सुख भरहीम् ॥
भरत सत्रुहन दोनु भाई। सहित पवनसुत उपबन जाई ॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा। कह हनुमान सुमति अवगाहा ॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं। बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिम् ॥
सब कें गृह गृह होहिं पुराना। रामचरित पावन बिधि नाना ॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं। करहिं दिवस निसि जात न जानहिम् ॥

दो. अवधपुरी बासिंह कर सुख सम्पदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥ 26 ॥

नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा ॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिम् ॥
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रङ्ग रुचिर गच ढारीम् ॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुन्दर। रचे कँगूरा रङ्ग रङ्ग बर ॥
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई ॥
महि बहु रङ्ग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ॥
धवल धाम ऊपर नभ चुम्बत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निन्दत ॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिम् ॥

छं. मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खम्भ भीति बिरञ्चि बिरची कनक मनि मरकत खची ॥
सुन्दर मनोहर मन्दिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ॥

दो. चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ॥ 27 ॥

सुमन बाटिका सबहिं लगाई। बिबिध भाँति करि जतन बनाई ॥
लता ललित बहु जाति सुहाई। फूलहिं सदा बंसत कि नाई ॥
गुञ्जत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिध सदा बह सुन्दर ॥
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़आत सुहाए ॥
मोर हंस सारस पारावत। भवननि पर सोभा अति पावत ॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं। बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीम् ॥
सुक सारिका पढ़आवहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक ॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रूचिर बजारू ॥

छं. बाजार रुचिर न बनि बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की सम्पदा किमि गाइए ॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरित सुन्दर नारि नर सिसु जरठ जे ॥

दो. उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गम्भीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पङ्क नहिं तीर ॥ 28 ॥

दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ॥
राजघाट सब बिधि सुन्दर बर। मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ॥
तीर तीर देवन्ह के मन्दिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुन्दर ॥
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी। बसहिं ग्यान रत मुनि सन्न्यासी ॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई। बृन्द बृन्द बहु मुनिन्ह लगाई ॥
पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई ॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़आगा ॥

छं. बापीं तड़आग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुन्दर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीम् ॥
बहु रङ्ग कञ्ज अनेक खग कूजहिं मधुप गुञ्जारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हङ्कारहीम् ॥

दो. रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख सम्पदा रहीं अवध सब छाइ ॥ 29 ॥

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहि सिखावहिम् ॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि ॥
जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि ॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। सन्त कञ्ज बन रबि रनधीरहि ॥
काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि ॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ॥
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भञ्जन भव भीरहि ॥
बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि ॥
मुनि रञ्जन भञ्जन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ॥

दो. एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं सन्तत कृपानिधान ॥ 30 ॥

जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयु अति प्रबल दिनेसा ॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ॥
जिन्हहि सोक ते कहुँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी ॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने ॥
बिबिध कर्म गुन काल सुभ्AU। ए चकोर सुख लहहिं न क्AU ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ॥
धरम तड़आग ग्यान बिग्याना। ए पङ्कज बिकसे बिधि नाना ॥
सुख सन्तोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका ॥

दो. यह प्रताप रबि जाकें उर जब करि प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास ॥ 31 ॥

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। सङ्ग परम प्रिय पवनकुमारा ॥
सुन्दर उपबन देखन गे। सब तरु कुसुमित पल्लव ने ॥
जानि समय सनकादिक आए। तेज पुञ्ज गुन सील सुहाए ॥
ब्रह्मानन्द सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना ॥
रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीम् ॥
तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसम्भव मुनिबर ग्यानी ॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी ॥

दो. देखि राम मुनि आवत हरषि दण्डवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह ॥ 32 ॥

कीन्ह दण्डवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई ॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भे मगन मन सके न रोकी ॥
स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुन्दरता मन्दिर भव मोचन ॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिम् ॥
तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्त्रवत नयन जल पुलक सरीरा ॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे ॥
आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा ॥
बड़ए भाग पाइब सतसङ्गा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भङ्गा ॥

दो. सन्त सङ्ग अपबर्ग कर कामी भव कर पन्थ।
कहहि सन्त कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रन्थ ॥ 33 ॥

सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी ॥
जय भगवन्त अनन्त अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय ॥
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मन्दिर सुन्दर अति नागर ॥
जय इन्दिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर ॥
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद ॥
तग्य कृतग्य अग्यता भञ्जन। नाम अनेक अनाम निरञ्जन ॥
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय ॥
द्वन्द बिपति भव फन्द बिभञ्जय। ह्रदि बसि राम काम मद गञ्जय ॥

दो. परमानन्द कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ॥ 34 ॥

देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिध ताप भव दाप नसावनि ॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु ॥
भव बारिधि कुम्भज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक ॥
मन सम्भव दारुन दुख दारय। दीनबन्धु समता बिस्तारय ॥
आस त्रास इरिषादि निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक ॥
भूप मौलि मन मण्डन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी ॥
मुनि मन मानस हंस निरन्तर। चरन कमल बन्दित अज सङ्कर ॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक ॥
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ॥

दो. बार बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ ॥ 35 ॥

सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिरु नाए ॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीम् ॥
सुनि चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी ॥
अन्तरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना ॥
जोरि पानि कह तब हनुमन्ता। सुनहु दीनदयाल भगवन्ता ॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीम् ॥
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभ्AU। भरतहि मोहि कछु अन्तर क्AU ॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ॥

दो. नाथ न मोहि सन्देह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानन्द सन्दोह ॥ 36 ॥

करुँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ॥
सन्तन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई ॥
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़आई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई ॥
सुना चहुँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिन्धु गुन ग्यान बिचच्छन ॥
सन्त असन्त भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई ॥
सन्तन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता ॥
सन्त असन्तन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चन्दन आचरनी ॥
काटि परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगन्ध बसाई ॥

दो. ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखण्ड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दण्ड ॥ 37 ॥

बिषय अलम्पट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी ॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया ॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी ॥
बिगत काम मम नाम परायन। सान्ति बिरति बिनती मुदितायन ॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री ॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात सन्त सन्तत फुर ॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिम् ॥

दो. निन्दा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कञ्ज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मन्दिर सुख पुञ्ज ॥ 38 ॥

सनहु असन्तन्ह केर सुभ्AU। भूलेहुँ सङ्गति करिअ न क्AU ॥
तिन्ह कर सङ्ग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालि हरहाई ॥
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर सम्पति देखी ॥
जहँ कहुँ निन्दा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई ॥
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सोम् ॥
झूठि लेना झूठि देना। झूठि भोजन झूठ चबेना ॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा ॥

दो. पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद ॥ 39 ॥

लोभि ओढ़न लोभि डासन। सिस्त्रोदर पर जमपुर त्रास न ॥
काहू की जौं सुनहिं बड़आई। स्वास लेहिं जनु जूड़ई आई ॥
जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भे मानहुँ जग नृपती ॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लम्पट काम लोभ अति क्रोधी ॥
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गे अरु घालहिं आनहिम् ॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। सन्त सङ्ग हरि कथा न भावा ॥
अवगुन सिन्धु मन्दमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी ॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दम्भ कपट जियँ धरें सुबेषा ॥

दो. ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेता नाहिं।
द्वापर कछुक बृन्द बहु होइहहिं कलिजुग माहिम् ॥ 40 ॥

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़आ सम नहिं अधमाई ॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ॥
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ॥
करहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना ॥
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फल दाता ॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने ॥
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक ॥
सन्त असन्तन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे ॥

दो. सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥ 41 ॥

श्रीमुख बचन सुनत सब भाई। हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा। हनूमान हियँ हरष अपारा ॥
पुनि रघुपति निज मन्दिर गे। एहि बिधि चरित करत नित ने ॥
बार बार नारद मुनि आवहिं। चरित पुनीत राम के गावहिम् ॥
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं। ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीम् ॥
सुनि बिरञ्चि अतिसय सुख मानहिं। पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिम् ॥
सनकादिक नारदहि सराहहिं। जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिम् ॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी ॥ सादर सुनहिं परम अधिकारी ॥

दो. जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ॥ 42 ॥

एक बार रघुनाथ बोलाए। गुर द्विज पुरबासी सब आए ॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन। बोले बचन भगत भव भञ्जन ॥
सनहु सकल पुरजन मम बानी। कहुँ न कछु ममता उर आनी ॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ॥
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई ॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ॥
बड़एं भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रन्थिन्ह गावा ॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥

दो. सो परत्र दुख पावि सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥ 43 ॥

एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गु स्वल्प अन्त दुखदाई ॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीम् ॥
ताहि कबहुँ भल कहि न कोई। गुञ्जा ग्रहि परस मनि खोई ॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥

दो. जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निन्दक मन्दमति आत्माहन गति जाइ ॥ 44 ॥

जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका ॥
करत कष्ट बहु पावि कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ॥
भक्ति सुतन्त्र सकल सुख खानी। बिनु सतसङ्ग न पावहिं प्रानी ॥
पुन्य पुञ्ज बिनु मिलहिं न सन्ता। सतसङ्गति संसृति कर अन्ता ॥
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥

सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करि द्विज सेवा ॥

दो. औरु एक गुपुत मत सबहि कहुँ कर जोरि।
सङ्कर भजन बिना नर भगति न पावि मोरि ॥ 45 ॥

कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा ॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ सन्तोष सदाई ॥
मोर दास कहाइ नर आसा। करि तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहुँ का कथा बढ़आई। एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा ॥
अनारम्भ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ॥
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ॥

दो. मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानि परानन्द सन्दोह ॥ 46 ॥

सुनत सुधासम बचन राम के। गहे सबनि पद कृपाधाम के ॥
जननि जनक गुर बन्धु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे ॥
तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीम् ॥
सबके बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ॥
निज निज गृह गे आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई ॥

दो. -उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानन्द घन रघुनायक जहँ भूप ॥ 47 ॥

एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए ॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा ॥
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिन्धु बिनती कछु मोरी ॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा ॥
महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहुँ भगवाना ॥
उपरोहित्य कर्म अति मन्दा। बेद पुरान सुमृति कर निन्दा ॥
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही ॥
परमातमा ब्रह्म नर रूपा। होइहि रघुकुल भूषन भूपा ॥

दो. -तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान।
जा कहुँ करिअ सो पैहुँ धर्म न एहि सम आन ॥ 48 ॥

जप तप नियम जोग निज धर्मा। श्रुति सम्भव नाना सुभ कर्मा ॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ॥
आगम निगम पुरान अनेका। पढ़ए सुने कर फल प्रभु एका ॥
तब पद पङ्कज प्रीति निरन्तर। सब साधन कर यह फल सुन्दर ॥
छूटि मल कि मलहि के धोएँ। घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअन्तर मल कबहुँ न जाई ॥
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पण्डित। सोइ गुन गृह बिग्यान अखण्डित ॥
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई। जाकें पद सरोज रति होई ॥

दो. नाथ एक बर मागुँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ॥ 49 ॥

अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिन्धु के मन अति भाए ॥
हनूमान भरतादिक भ्राता। सङ्ग लिए सेवक सुखदाता ॥
पुनि कृपाल पुर बाहेर गे। गज रथ तुरग मगावत भे ॥
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ॥
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गे जहाँ सीतल अवँराई ॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ॥
मारुतसुत तब मारूत करी। पुलक बपुष लोचन जल भरी ॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी। नहिं कौ राम चरन अनुरागी ॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई ॥

दो. तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ॥ 50 ॥

मामवलोकय पङ्कज लोचन। कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ॥
नील तामरस स्याम काम अरि। हृदय कञ्ज मकरन्द मधुप हरि ॥
जातुधान बरूथ बल भञ्जन। मुनि सज्जन रञ्जन अघ गञ्जन ॥
भूसुर ससि नव बृन्द बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक ॥
भुज बल बिपुल भार महि खण्डित। खर दूषन बिराध बध पण्डित ॥
रावनारि सुखरूप भूपबर। जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ॥
सुजस पुरान बिदित निगमागम। गावत सुर मुनि सन्त समागम ॥
कारुनीक ब्यलीक मद खण्डन। सब बिधि कुसल कोसला मण्डन ॥
कलि मल मथन नाम ममताहन। तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ॥

दो. प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम।
सोभासिन्धु हृदयँ धरि गे जहाँ बिधि धाम ॥ 51 ॥

गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा ॥
राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा ॥
राम अनन्त अनन्त गुनानी। जन्म कर्म अनन्त नामानी ॥
जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीम् ॥
बिमल कथा हरि पद दायनी। भगति होइ सुनि अनपायनी ॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई। जो भुसुण्डि खगपतिहि सुनाई ॥
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी। अब का कहौं सो कहहु भवानी ॥
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी। बोली अति बिनीत मृदु बानी ॥
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ॥

दो. तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानन्द सन्दोह ॥ 52(क) ॥

नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ॥ 52(ख) ॥

राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीम् ॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ। हरि गुन सुनहीं निरन्तर तेऊ ॥
भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥
बिषिन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा। श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥
श्रवनवन्त अस को जग माहीं। जाहि न रघुपति चरित सोहाहीम् ॥
ते जड़ जीव निजात्मक घाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ॥
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा। सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ॥
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागभसुण्डि गरुड़ प्रति गाई ॥

दो. बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम सन्देह ॥ 53 ॥

नर सहस्र महँ सुनहु पुरारी। कौ एक होइ धर्म ब्रतधारी ॥
धर्मसील कोटिक महँ कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई ॥
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कही। सम्यक ग्यान सकृत कौ लही ॥
ग्यानवन्त कोटिक महँ कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥
तिन्ह सहस्र महुँ सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ॥
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया ॥
सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ॥

दो. राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायु काक सरीर ॥ 54 ॥

यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा ॥
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी ॥
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥
कहहु कवन बिधि भा सम्बादा। दौ हरिभगत काग उरगादा ॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई ॥
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ॥
उपजि राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥

दो. ऐसिअ प्रस्न बिहङ्गपति कीन्ह काग सन जाइ।
सो सब सादर कहिहुँ सुनहु उमा मन लाइ ॥ 55 ॥

मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि। सो प्रसङ्ग सुनु सुमुखि सुलोचनि ॥
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा। सती नाम तब रहा तुम्हारा ॥
दच्छ जग्य तब भा अपमाना। तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ॥
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भङ्गा। जानहु तुम्ह सो सकल प्रसङ्गा ॥
तब अति सोच भयु मन मोरें। दुखी भयुँ बियोग प्रिय तोरेम् ॥
सुन्दर बन गिरि सरित तड़आगा। कौतुक देखत फिरुँ बेरागा ॥
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी। नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥
तासु कनकमय सिखर सुहाए। चारि चारु मोरे मन भाए ॥
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला। बट पीपर पाकरी रसाला ॥
सैलोपरि सर सुन्दर सोहा। मनि सोपान देखि मन मोहा ॥

दो. -सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरङ्ग।
कूजत कल रव हंस गन गुञ्जत मजुंल भृङ्ग ॥ 56 ॥

तेहिं गिरि रुचिर बसि खग सोई। तासु नास कल्पान्त न होई ॥
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका ॥
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीम् ॥
तहँ बसि हरिहि भजि जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥
पीपर तरु तर ध्यान सो धरी। जाप जग्य पाकरि तर करी ॥
आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ॥
बर तर कह हरि कथा प्रसङ्गा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहङ्गा ॥
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना ॥
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरन्तर जे तेहिं ताला ॥
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनन्द बिसेषा ॥

दो. तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयुँ कैलास ॥ 57 ॥

गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयुँ खग पासा ॥
अब सो कथा सुनहु जेही हेतू। गयु काग पहिं खग कुल केतू ॥
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़आ। समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़आ ॥
इन्द्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ॥
बन्धन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचण्ड बिषादा ॥
प्रभु बन्धन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती ॥
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा ॥
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीम् ॥

दो. -भव बन्धन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥ 58 ॥

नाना भाँति मनहि समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ॥
खेद खिन्न मन तर्क बढ़आई। भयु मोहबस तुम्हरिहिं नाई ॥
ब्याकुल गयु देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीम् ॥
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया ॥
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरी। बरिआई बिमोह मन करी ॥
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहङ्गपति तोही ॥
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरेम् ॥
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ॥

दो. अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ॥ 59 ॥

तब खगपति बिरञ्चि पहिं गयू। निज सन्देह सुनावत भयू ॥
सुनि बिरञ्चि रामहि सिरु नावा। समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ॥
मन महुँ करि बिचार बिधाता। माया बस कबि कोबिद ग्याता ॥
हरि माया कर अमिति प्रभावा। बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ॥
अग जगमय जग मम उपराजा। नहिं आचरज मोह खगराजा ॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई। जान महेस राम प्रभुताई ॥
बैनतेय सङ्कर पहिं जाहू। तात अनत पूछहु जनि काहू ॥
तहँ होइहि तव संसय हानी। चलेउ बिहङ्ग सुनत बिधि बानी ॥

दो. परमातुर बिहङ्गपति आयु तब मो पास।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ॥ 60 ॥

तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन सन्देह सुनावा ॥
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ॥
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही ॥
तबहि होइ सब संसय भङ्गा। जब बहु काल करिअ सतसङ्गा ॥
सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ॥
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥
नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवुँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ॥
जाइहि सुनत सकल सन्देहा। राम चरन होइहि अति नेहा ॥

दो. बिनु सतसङ्ग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गेँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥ 61 ॥

मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ॥
उत्तर दिसि सुन्दर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला ॥
राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ॥
राम कथा सो कहि निरन्तर। सादर सुनहिं बिबिध बिहङ्गबर ॥
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी ॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ॥
ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खौवै चह कृपानिधाना ॥
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझि खग खगही कै भाषा ॥
प्रभु माया बलवन्त भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ॥

दो. ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ॥ 62(क) ॥

मासपारायण, अट्ठाईसवाँ विश्राम
सिव बिरञ्चि कहुँ मोहि को है बपुरा आन।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ॥ 62(ख) ॥

गयु गरुड़ जहँ बसि भुसुण्डा। मति अकुण्ठ हरि भगति अखण्डा ॥
देखि सैल प्रसन्न मन भयू। माया मोह सोच सब गयू ॥
करि तड़आग मज्जन जलपाना। बट तर गयु हृदयँ हरषाना ॥
बृद्ध बृद्ध बिहङ्ग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए ॥
कथा अरम्भ करै सोइ चाहा। तेही समय गयु खगनाहा ॥
आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा ॥
अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ॥
करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा ॥

दो. नाथ कृतारथ भयुँ मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ॥ 63(क) ॥

सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ॥ 63(ख) ॥

सुनहु तात जेहि कारन आयुँ। सो सब भयु दरस तव पायुँ ॥
देखि परम पावन तव आश्रम। गयु मोह संसय नाना भ्रम ॥
अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुञ्ज नसावनि ॥
सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवुँ प्रभु तोही ॥
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥
भयु तासु मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा ॥
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी ॥
पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ॥

दो. बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ॥ 64 ॥

बहुरि राम अभिषेक प्रसङ्गा। पुनि नृप बचन राज रस भङ्गा ॥
पुरबासिंह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन सम्बादा ॥
बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ॥
सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना ॥
करि नृप क्रिया सङ्ग पुरबासी। भरत गे जहँ प्रभु सुख रासी ॥
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए ॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेण्ट पुनि बरनी ॥

दो. कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभङ्ग ॥
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसङ्ग ॥ 65 ॥

कहि दण्डक बन पावनताई। गीध मित्री पुनि तेहिं गाई ॥
पुनि प्रभु पञ्चवटीं कृत बासा। भञ्जी सकल मुनिन्ह की त्रासा ॥
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ॥
खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना ॥
दसकन्धर मारीच बतकहीं। जेहि बिधि भी सो सब तेहिं कही ॥
पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ॥
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबन्ध सबरिहि गति दीन्ही ॥
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गे सरोबर तीरा ॥

दो. प्रभु नारद सम्बाद कहि मारुति मिलन प्रसङ्ग।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भङ्ग ॥ 66((क) ॥

कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥ 66(ख) ॥

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए ॥
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती। कपिन्ह बहोरि मिला सम्पाती ॥
सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयु पयोधि अपारा ॥
लङ्काँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ॥
बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ॥
आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही कि कुसल सुनाई ॥
सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ॥
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई ॥

दो. सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।
गयु बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ॥ 67(क) ॥

निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।
कुम्भकरन घननाद कर बल पौरुष सङ्घार ॥ 67(ख) ॥

निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना ॥
रावन बध मन्दोदरि सोका। राज बिभीषण देव असोका ॥
सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ॥
पुनि पुष्पक चढ़इ कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता ॥
जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए ॥
कहेसि बहोरि राम अभिषैका। पुर बरनत नृपनीति अनेका ॥
कथा समस्त भुसुण्ड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ॥
सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा ॥

सो. गयु मोर सन्देह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।
भयु राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ॥ 68(क) ॥

मोहि भयु अति मोह प्रभु बन्धन रन महुँ निरखि।
चिदानन्द सन्दोह राम बिकल कारन कवन। 68(ख) ॥

देखि चरित अति नर अनुसारी। भयु हृदयँ मम संसय भारी ॥
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ॥
जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानि सोई ॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ॥
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ॥
निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं सन्देहा ॥
सन्त बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
राम कृपाँ तव दरसन भयू। तव प्रसाद सब संसय गयू ॥

दो. सुनि बिहङ्गपति बानी सहित बिनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ॥ 69(क) ॥

श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ॥ 69(ख) ॥

बोलेउ काकभसुण्ड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ॥
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे ॥
तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ॥
पठि मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़आई मोही ॥
तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईम् ॥
नारद भव बिरञ्चि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी ॥
मोह न अन्ध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही ॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ॥

दो. ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लौभ बिडम्बना कीन्हि न एहिं संसार ॥ 70(क) ॥

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥ 70(ख) ॥

गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कौ न मान मद तजेउ निबेही ॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा ॥
मच्छर काहि कलङ्क न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा ॥
चिन्ता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया ॥
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा ॥
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा ॥
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीम् ॥

दो. ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचण्ड ॥
सेनापति कामादि भट दम्भ कपट पाषण्ड ॥ 71(क) ॥

सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहुँ पद रोऽपि ॥ 71(ख) ॥

जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा ॥
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा ॥
सोइ सच्चिदानन्द घन रामा। अज बिग्यान रूपो बल धामा ॥
ब्यापक ब्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघसक्ति भगवन्ता ॥
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता ॥
निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरञ्जन सुख सन्दोहा ॥
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीम् ॥

दो. भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ॥ 72(क) ॥

जथा अनेक बेष धरि नृत्य करि नट कोइ।
सोइ सोइ भाव देखावि आपुन होइ न सोइ ॥ 72(ख) ॥

असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥
जे मति मलिन बिषयबस कामी। प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ॥
नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा। सो कह पच्छिम उयु दिनेसा ॥
नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा ॥
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥
हरि बिषिक अस मोह बिहङ्गा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसङ्गा ॥
मायाबस मतिमन्द अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥
ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीम् ॥

दो. काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥ 73(क) ॥

निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥ 73(ख) ॥

सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहुँ जथामति कथा सुहाई ॥
जेहि बिधि मोह भयु प्रभु मोही। सौ सब कथा सुनावुँ तोही ॥
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ॥
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावुँ। परम रहस्य मनोहर गावुँ ॥
सुनहु राम कर सहज सुभ्AU। जन अभिमान न राखहिं क्AU ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ॥
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी ॥
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई। मातु चिराव कठिन की नाईम् ॥

दो. जदपि प्रथम दुख पावि रोवि बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥ 74(क) ॥

तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ॥ 74(ख) ॥

राम कृपा आपनि जड़ताई। कहुँ खगेस सुनहु मन लाई ॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लील बहु करहीम् ॥
तब तब अवधपुरी मैं ज़AUँ। बालचरित बिलोकि हरष्AUँ ॥
जन्म महोत्सव देखुँ जाई। बरष पाँच तहँ रहुँ लोभाई ॥
इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा ॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करुँ उरगारी ॥
लघु बायस बपु धरि हरि सङ्गा। देखुँ बालचरित बहुरङ्गा ॥

दो. लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ सङ्ग उड़आउँ।
जूठनि परि अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ॥ 75(क) ॥

एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयु सरीर ॥ 75(ख) ॥

कहि भसुण्ड सुनहु खगनायक। रामचरित सेवक सुखदायक ॥
नृपमन्दिर सुन्दर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती ॥
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ॥
बालबिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई ॥
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अङ्ग अङ्ग प्रति छबि बहु कामा ॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ॥
ललित अङ्क कुलिसादिक चारी। नूपुर चारू मधुर रवकारी ॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किङ्किन कल मुखर सुहाई ॥

दो. रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥ 76 ॥

अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर ॥
कन्ध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा ॥
कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ॥
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा ॥
नील कञ्ज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुञ्चित कच मेचक छबि छाए ॥
पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही ॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिम्ब निहारी ॥
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़आ। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़आ ॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलुँ भागि तब पूप देखावहिम् ॥

दो. आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चिति पराहिम् ॥ 77(क) ॥

प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयु मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानन्द सन्दोह ॥ 77(ख) ॥

एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीम् ॥
नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना ॥
ग्यान अखण्ड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर ॥
जौं सब कें रह ग्यान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी ॥
परबस जीव स्वबस भगवन्ता। जीव अनेक एक श्रीकन्ता ॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥

दो. रामचन्द्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवन्त अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥ 78(क) ॥

राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ॥
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥ 78(ख) ॥

ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटि न जीवन्ह केर कलेसा ॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापि तेहि बिद्या ॥
ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहङ्गबर ॥
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ॥
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना ॥
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी ॥
जिमि जिमि दूरि उड़आउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखुँ निज पासा ॥

दो. ब्रह्मलोक लगि गयुँ मैं चितयुँ पाछ उड़आत।
जुग अङ्गुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ॥ 79(क) ॥

सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयुँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयुँ बहोरि ॥ 79(ख) ॥

मूदेउँ नयन त्रसित जब भयुँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयूँ ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयुँ मुख माहीम् ॥
उदर माझ सुनु अण्डज राया। देखेउँ बहु ब्रह्माण्ड निकाया ॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका ॥
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा ॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला ॥
सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ॥
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किन्नर। चारि प्रकार जीव सचराचर ॥

दो. जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ॥ 80(क) ॥

एक एक ब्रह्माण्ड महुँ रहुँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरुँ मैं अण्ड कटाह अनेक ॥ 80(ख) ॥

एहि बिधि देखत फिरुँ मैं अण्ड कटाह अनेक ॥ 80(ख) ॥

लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ॥
नर गन्धर्ब भूत बेताला। किन्नर निसिचर पसु खग ब्याला ॥
देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती ॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपञ्च तहँ आनि आना ॥
अण्डकोस प्रति प्रति निज रुपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ॥
दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ॥
प्रति ब्रह्माण्ड राम अवतारा। देखुँ बालबिनोद अपारा ॥

दो. भिन्न भिन्न मै दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन ॥ 81(क) ॥

सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरुँ प्रेरित मोह समीर ॥ 81(ख)

भ्रमत मोहि ब्रह्माण्ड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका ॥
फिरत फिरत निज आश्रम आयुँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयुँ ॥
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायुँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायुँ ॥
देखुँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई ॥
राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनि न जाइ बखाना ॥
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना ॥
करुँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी ॥
उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयुँ भ्रमित मन मोह बिसेषा ॥

दो. देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयुँ सुनु मतिधीर ॥ 82(क) ॥

सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भाँति समुझावुँ मनु न लहि बिश्राम ॥ 82(ख) ॥

देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई ॥
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता ॥
प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी ॥
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ ॥
कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा सन्दोहा ॥
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी ॥
भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी ॥
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी ॥

दो. सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गम्भीर मृदु बोले रमानिवास ॥ 83(क) ॥

काकभसुण्डि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि ॥ 83(ख) ॥

ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना ॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीम् ॥
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेऊँ ॥
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही ॥
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिञ्जन जैसे ॥
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा ॥
जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू ॥
मन भावत बर मागुँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अन्तरजामी ॥

दो. अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कौ पाव ॥ 84(क) ॥

भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिन्धु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम ॥ 84(ख) ॥

एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक ॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना ॥

सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कौ तोहि सम बड़भागी ॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीम् ॥
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई ॥
सुनु बिहङ्ग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरेम् ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा ॥
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा ॥

दोंंआया सम्भव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि ॥ 85(क) ॥

मोहि भगत प्रिय सन्तत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग ॥ 85(ख) ॥

अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी ॥
निज सिद्धान्त सुनावुँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही ॥
मम माया सम्भव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा ॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए ॥
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी ॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी ॥
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा ॥
पुनि पुनि सत्य कहुँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कौ नाहीम् ॥
भगति हीन बिरञ्चि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ॥
भगतिवन्त अति नीचु प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी ॥

दो. सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग ॥ 86 ॥

एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा ॥
कौ पण्डिन्त कौ तापस ग्याता। कौ धनवन्त सूर कौ दाता ॥
कौ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई ॥
कौ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा ॥
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना ॥
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते ॥
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया ॥
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरू काया ॥

दो. पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥ 87(क) ॥

सो. सत्य कहुँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब ॥ 87(ख) ॥

कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरन्तर मोही ॥
प्रभु बचनामृत सुनि न अघ्AUँ। तनु पुलकित मन अति हरष्AUँ ॥
सो सुख जानि मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना ॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना ॥
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई ॥
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चिति मातु लागी अति भूखा ॥
देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई ॥
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना ॥

सो. जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ सन्तत मगन ॥ 88(क) ॥

सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ॥ 88(ख) ॥

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला ॥
राम प्रसाद भगति बर पायुँ। प्रभु पद बन्दि निजाश्रम आयुँ ॥
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया ॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा ॥
निज अनुभव अब कहुँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा ॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़आई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई ॥

सो. बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥ 89(क) ॥

कौ बिश्राम कि पाव तात सहज सन्तोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥ 89(ख) ॥

बिनु सन्तोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीम् ॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ॥
बिनु बिग्यान कि समता आवि। कौ अवकास कि नभ बिनु पावि ॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गन्ध कि पावि कोई ॥
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा ॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई ॥
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा ॥
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा ॥

दो. बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु ॥ 90(क) ॥

सो. अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुन्दर सुखद ॥ 90(ख) ॥

निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई ॥
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी ॥
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनन्त रघुनाथा ॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिम् ॥
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजन्ता। नभ उड़आहिं नहिं पावहिं अन्ता ॥
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कौ पाव कि थाहा ॥
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन ॥
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा ॥

दो. मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥ 91(क) ॥

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरन्त।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवन्त ॥ 91(ख) ॥

प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला ॥
तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिन्धु कोटि सत सम गम्भीरा ॥
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना ॥
सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपञ्च निधाना ॥
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥

छं. निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीम् ॥

दो. रामु अमित गुन सागर थाह कि पावि कोइ।
सन्तन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायुँ सोइ ॥ 92(क) ॥

सो. भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥ 92(ख) ॥

सुनि भुसुण्डि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पङ्ख फुलाए ॥
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥
पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़आवा ॥
गुर बिनु भव निधि तरि न कोई। जौं बिरञ्चि सङ्कर सम होई ॥
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥
तव सरूप गारुड़इ रघुनायक। मोहि जिआयु जन सुखदायक ॥
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना ॥

दो. ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥ 93(क) ॥

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझुँ स्वामी तोहि।
कृपासिन्धु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥ 93(ख) ॥

तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा ॥
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥
राम चरित सर सुन्दर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीम् ॥
मुधा बचन नहिं ईस्वर कही। सौ मोरें मन संसय अही ॥
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥
अण्ड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥

सो. तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥ 94(क) ॥

दो. प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥ 94(ख) ॥

गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥
धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥
सब निज कथा कहुँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई ॥
जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कौ न पावि छेमा ॥
एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई ॥
जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई ॥

सो. पन्नगारि असि नीति श्रुति सम्मत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥ 95(क) ॥

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटम्बर रुचिर।
कृमि पालि सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥ 95(ख) ॥

स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥
राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥
राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥
तजुँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥
नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना ॥
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीम् ॥
देखेउँ करि सब करम गोसाई। सुखी न भयुँ अबहिं की नाई ॥
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥

दो. प्रथम जन्म के चरित अब कहुँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजि जातें मिटहिं कलेस ॥ 96(क) ॥

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥ 96(ख) ॥

तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयुँ सूद्र तनु पाई ॥
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निन्दक अभिमानी ॥
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दम्भ बिसाला ॥
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥
अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा ॥
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई ॥
अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी ॥

दो. कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भे सदग्रन्थ।
दम्भिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पन्थ ॥ 97(क) ॥

भे लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहुँ कछुक कलिधर्म ॥ 97(ख) ॥

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कौ नहिं मान निगम अनुसासन ॥
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पण्डित सोइ जो गाल बजावा ॥
मिथ्यारम्भ दम्भ रत जोई। ता कहुँ सन्त कहि सब कोई ॥
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दम्भ सो बड़ आचारी ॥
जौ कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवन्त बखाना ॥
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥

दो. असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिम् ॥ 98(क) ॥

सो. जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥ 98(ख) ॥

नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति सन्त बिरोधी ॥
गुन मन्दिर सुन्दर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिङ्गार नबीना ॥
गुर सिष बधिर अन्ध का लेखा। एक न सुनि एक नहिं देखा ॥
हरि सिष्य धन सोक न हरी। सो गुर घोर नरक महुँ परी ॥
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिम् ॥

दो. ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ई लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥ 99(क) ॥

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानि ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥ 99(ख) ॥

पर त्रिय लम्पट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने ॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥
आपु गे अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिम् ॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा ॥
नारि मुई गृह सम्पति नासी। मूड़ मुड़आइ होहिं सन्यासी ॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिम् ॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी ॥
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥

दो. भे बरन सङ्कर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥ 100(क) ॥

श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ सञ्जुत बिरति बिबेक।
तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पन्थ अनेक ॥ 100(ख) ॥

छं. बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥
तपसी धनवन्त दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥
कुलवन्ति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौम् ॥
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुम्ब भे तब तेम् ॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दण्ड बिडम्ब प्रजा नितहीम् ॥
धनवन्त कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक सन्त सही कलि सो।
कबि बृन्द उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोऽपि गुनी ॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥

दो. सुनु खगेस कलि कपट हठ दम्भ द्वेष पाषण्ड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मण्ड ॥ 101(क) ॥

तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनीं बे न जामहिं धान ॥ 101(ख) ॥

छं. अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा ॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥ 1 ॥

नर पीड़इत रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीम् ॥
लघु जीवन सम्बतु पञ्च दसा। कलपान्त न नास गुमानु असा ॥ 2 ॥

कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भे मगता ॥ 3 ॥

इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता ॥
सब लोग बियोग बिसोक हुए। बरनाश्रम धर्म अचार गे ॥ 4 ॥

दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबञ्चनताति घनी ॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिन्दक जे जग मो बगरे ॥ 5 ॥

दो. सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनुँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥ 102(क) ॥

कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥ 102(ख) ॥

कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीम् ॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा ॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा ॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना ॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीम् ॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥

दो. कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥ 103(क) ॥

प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करि कल्यान ॥ 103(ख) ॥

नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे ॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस ॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीम् ॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापि माया ॥

दो. हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिम् ॥ 104(क) ॥

तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयुँ बिदेस ॥ 104(ख) ॥

गयुँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी ॥
गेँ काल कछु सम्पति पाई। तहँ पुनि करुँ सम्भु सेवकाई ॥
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करि सदा तेहि काजु न दूजा ॥
परम साधु परमारथ बिन्दक। सम्भु उपासक नहिं हरि निन्दक ॥
तेहि सेवुँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़आव पुत्र की नाईम् ॥
सम्भु मन्त्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ॥
जपुँ मन्त्र सिव मन्दिर जाई। हृदयँ दम्भ अहमिति अधिकाई ॥

दो. मैं खल मल सङ्कुल मति नीच जाति बस मोह।
हरि जन द्विज देखें जरुँ करुँ बिष्नु कर द्रोह ॥ 105(क) ॥

सो. गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजि अति क्रोध दम्भिहि नीति कि भावी ॥ 105(ख) ॥

एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई ॥
रामहि भजहिं तात सिव धाता। नर पावँर कै केतिक बाता ॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी। तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ॥
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ। सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ। भयुँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती। गुर कर द्रोह करुँ दिनु राती ॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ॥
जेहि ते नीच बड़आई पावा। सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥
धूम अनल सम्भव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥
रज मग परी निरादर रही। सब कर पद प्रहार नित सही ॥
मरुत उड़आव प्रथम तेहि भरी। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परी ॥
सुनु खगपति अस समुझि प्रसङ्गा। बुध नहिं करहिं अधम कर सङ्गा ॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं। खल परिहरिअ स्वान की नाईम् ॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई। गुर हित कहि न मोहि सोहाई ॥

दो. एक बार हर मन्दिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयु अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥ 106(क) ॥

सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥ 106(ख) ॥

मन्दिर माझ भी नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा ॥
तदपि साप सठ दैहुँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही ॥
जौं नहिं दण्ड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीम् ॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ॥
बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई ॥ रहु अधमाधम अधगति पाई ॥

दो. हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ॥
कम्पित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥ 107(क) ॥

करि दण्डवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥ 107(ख) ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विम्भुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥
निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशम् ॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥
तुषाराद्रि सङ्काश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ॥
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ॥
चिदानन्दसन्दोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥
श्लोक-रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥ 9 ॥

दो. -सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु।
पुनि मन्दिर नभबानी भि द्विजबर बर मागु ॥ 108(क) ॥

जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥ 108(ख) ॥

तव माया बस जीव जड़ सन्तत फिरि भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिन्धु भगवान ॥ 108(ग) ॥

सङ्कर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥ 108(घ) ॥

एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भि नभबानी ॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ॥
तदपि तुम्हार साधुता देखी। करिहुँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥
छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥
जनमत मरत दुसह दुख होई। अहि स्वल्पु नहिं ब्यापिहि सोई ॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥
रघुपति पुरीं जन्म तब भयू। पुनि तैं मम सेवाँ मन दयू ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरेम् ॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेहु सन्त अनन्त समाना ॥
इन्द्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदण्ड हरि चक्र कराला ॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरी। बिप्रद्रोह पावक सो जरी ॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीम् ॥
औरु एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥

दो. सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयु गृह सम्भु चरन उर राखि ॥ 109(क) ॥

प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयुँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गेँ कछु काल ॥ 109(ख) ॥

जोइ तनु धरुँ तजुँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरि नर परिहरि पुरान ॥ 109(ग) ॥

सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयु खगेस ॥ 109(घ) ॥

त्रिजग देव नर जोइ तनु धरुँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरूँ ॥
एक सूल मोहि बिसर न क्AU। गुर कर कोमल सील सुभ्AU ॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥
खेलुँ तहूँ बालकन्ह मीला। करुँ सकल रघुनायक लीला ॥
प्रौढ़ भेँ मोहि पिता पढ़आवा। समझुँ सुनुँ गुनुँ नहिं भावा ॥
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी ॥
कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़आइ पढ़आई ॥
भे कालबस जब पितु माता। मैं बन गयुँ भजन जनत्राता ॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावुँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावुँ ॥
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनुँ हरषित खगनाहा ॥
सुनत फिरुँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति सम्भु प्रसादा ॥
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ई। एक लालसा उर अति बाढ़ई ॥
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौम् ॥
जेहि पूँछुँ सोइ मुनि अस कही। ईस्वर सर्ब भूतमय अही ॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥

दो. गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरुँ छन छन नव अनुराग ॥ 110(क) ॥

मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायुँ बचन कहेउँ अति दीन ॥ 110(ख) ॥

सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भे द्विज आयहु केहि काज ॥ 110(ग) ॥

तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ॥ 110(घ) ॥

तब मुनिष रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा ॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि। मोहि परम अधिकारी जानी ॥
लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ॥
अकल अनीह अनाम अरुपा। अनुभव गम्य अखण्ड अनूपा ॥
मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी ॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहि बेदा ॥
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥
राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया ॥
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहुँ निर्गुन उपदेसा ॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खण्डि सगुन मत अगुन निरूपा ॥
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपुँ करि हठ भूरी ॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भे क्रोध के चीन्हा ॥
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ॥
अति सङ्घरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चन्दन ते होई ॥

दो. -बारम्बार सकोप मुनि करि निरुपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करुँ बिबिध अनुमान ॥ 111(क) ॥

क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ॥ 111(ख) ॥

कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकेम् ॥
परद्रोही की होहिं निसङ्का। कामी पुनि कि रहहिं अकलङ्का ॥
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हेम् ॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ॥
भव कि परहिं परमात्मा बिन्दक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिन्दक ॥
राजु कि रहि नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानेम् ॥
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावि कोई ॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति सन्त पुराना ॥
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई ॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना ॥
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनूँ। मुनि उपदेस न सादर सुनूँ ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ॥
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही ॥
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चण्डाला ॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़आई। नहिं कछु भय न दीनता आई ॥

दो. तुरत भयुँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़आइ ॥ 112(क) ॥

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ॥
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥ 112(ख) ॥

सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ॥
कृपासिन्धु मुनि मति करि भोरी। लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ॥
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी ॥
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ॥
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा। हरषित राममन्त्र तब दीन्हा ॥
बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ॥
सुन्दर सुखद मिहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ॥
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा ॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥
रामचरित सर गुप्त सुहावा। सम्भु प्रसाद तात मैं पावा ॥
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी ॥
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीम् ॥
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ॥
निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ॥
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरेम् ॥

दो. -सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ॥ 113(क) ॥

जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवन्त।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजन्त ॥ 113(ख) ॥

काल कर्म गुन दोष सुभ्AU। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि क्AU ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीम् ॥
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भि गगन गँभीरा ॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी ॥
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयू। प्रेम मगन सब संसय गयू ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ॥
हरष सहित एहिं आश्रम आयुँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायुँ ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा ॥
करुँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहङ्ग सुजाना ॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ॥
तब तब जाइ राम पुर रहूँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहूँ ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवुँ खगभूपा ॥
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई ॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी ॥

दो. ताते यह तन मोहि प्रिय भयु राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायुँ गे सकल सन्देह ॥ 114(क) ॥

मासपारायण, उन्तीसवाँ विश्राम
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायुँ देखहु भजन प्रताप ॥ 114(ख) ॥

जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीम् ॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥
ते सठ महासिन्धु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥
सुनि भसुण्डि के बचन भवानी। बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं। संसय सोक मोह भ्रम नाहीम् ॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा। तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥
एक बात प्रभु पूँछुँ तोही। कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
कहहिं सन्त मुनि बेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं। नहिं आदरेहु भगति की नाईम् ॥
ग्यानहि भगतिहि अन्तर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना ॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा ॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अन्तर। सावधान सौ सुनु बिहङ्गबर ॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना। ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती ॥

दो. -पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ॥
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥ 115(क) ॥

सो. सौ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥ 115(ख) ॥

इहाँ न पच्छपात कछु राखुँ। बेद पुरान सन्त मत भाषुँ ॥
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानि सब कोऊ ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी ॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया ॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसि जासु उर सदा अबाधी ॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकि कछु निज प्रभुताई ॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहीं भगति सकल सुख खानी ॥

दो. यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानि कोइ।
जो जानि रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ 116(क) ॥

औरु ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥ 116(ख) ॥

सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनि न जाइ बखानी ॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
सो मायाबस भयु गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥
जड़ चेतनहि ग्रन्थि परि गी। जदपि मृषा छूटत कठिनी ॥
तब ते जीव भयु संसारी। छूट न ग्रन्थि न होइ सुखारी ॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रन्थि छूट किमि परि न देखी ॥
अस सञ्जोग ईस जब करी। तबहुँ कदाचित सो निरुअरी ॥
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा। जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा ॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बिहाई ॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़आवै। धृति सम जावनु देइ जमावै ॥
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥
तब मथि काढ़इ लेइ नवनीता। बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥

दो. जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ।
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥ 117(क) ॥

तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥ 117(ख) ॥

तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़इ।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़इ ॥ 117(ग) ॥

सो. एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ॥
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥ 117(घ) ॥

सोहमस्मि इति बृत्ति अखण्डा। दीप सिखा सोइ परम प्रचण्डा ॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटि अपारा ॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा। उर गृहँ बैठि ग्रन्थि निरुआरा ॥
छोरन ग्रन्थि पाव जौं सोई। तब यह जीव कृतारथ होई ॥
छोरत ग्रन्थि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करि तब माया ॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरि बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा। अञ्चल बात बुझावहिं दीपा ॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥
इन्द्रीं द्वार झरोखा नाना। तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी ॥
जब सो प्रभञ्जन उर गृहँ जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥
ग्रन्थि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भि बिषय बतासा ॥
इन्द्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥

दो. तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावि संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥ 118(क) ॥

कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥ 118(ख) ॥

ग्यान पन्थ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा ॥
जो निर्बिघ्न पन्थ निर्बही। सो कैवल्य परम पद लही ॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। सन्त पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई। अनिच्छित आवि बरिआई ॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भाँति कौ करै उपाई ॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकि हरि भगति बिहाई ॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा ॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥
असि हरिभगति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥

दो. सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ॥
भजहु राम पद पङ्कज अस सिद्धान्त बिचारि ॥ 119(क) ॥

जो चेतन कहँ ज़ड़ करि ज़ड़हि करि चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ॥ 119(ख) ॥

कहेउँ ग्यान सिद्धान्त बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥
राम भगति चिन्तामनि सुन्दर। बसि गरुड़ जाके उर अन्तर ॥
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसि भगति जाके उर माहीम् ॥
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकेम् ॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीम् ॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अही। राम कृपा बिनु नहिं कौ लही ॥
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ॥
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना ॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥
भाव सहित खोजि जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ॥
राम सिन्धु घन सज्जन धीरा। चन्दन तरु हरि सन्त समीरा ॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु सन्त न काहूँ पाई ॥
अस बिचारि जोइ कर सतसङ्गा। राम भगति तेहि सुलभ बिहङ्गा ॥

दो. ब्रह्म पयोनिधि मन्दर ग्यान सन्त सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिम् ॥ 120(क) ॥

बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥ 120(ख) ॥

पुनि सप्रेम बोलेउ खगर्AU। जौं कृपाल मोहि ऊपर भ्AU ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न कहहु बखानी ॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सौ सञ्छेपहिं कहहु बिचारी ॥
सन्त असन्त मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला ॥
मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं सञ्छेप कहुँ यह नीती ॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही ॥
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मन्द मन्द तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेही। कर ते डारि परस मनि देहीम् ॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। सन्त मिलन सम सुख जग नाहीम् ॥
पर उपकार बचन मन काया। सन्त सहज सुभाउ खगराया ॥
सन्त सहहिं दुख परहित लागी। परदुख हेतु असन्त अभागी ॥
भूर्ज तरू सम सन्त कृपाला। परहित निति सह बिपति बिसाला ॥
सन इव खल पर बन्धन करी। खाल कढ़आइ बिपति सहि मरी ॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥
पर सम्पदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीम् ॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू। जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥
सन्त उदय सन्तत सुखकारी। बिस्व सुखद जिमि इन्दु तमारी ॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निन्दा सम अघ न गरीसा ॥
हर गुर निन्दक दादुर होई। जन्म सहस्र पाव तन सोई ॥
द्विज निन्दक बहु नरक भोगकरि। जग जनमि बायस सरीर धरि ॥
सुर श्रुति निन्दक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥
होहिं उलूक सन्त निन्दा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥
सब के निन्दा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीम् ॥
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजि सन्यपात दुखदाई ॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना ॥
ममता दादु कण्डु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई ॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छी। कुष्ट दुष्टता मन कुटिली ॥
अहङ्कार अति दुखद डमरुआ। दम्भ कपट मद मान नेहरुआ ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ॥

दो. एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं सन्तत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥ 121(क) ॥

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥ 121(ख) ॥

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥
मानक रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी ॥
बिषय कुपथ्य पाइ अङ्कुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥
राम कृपाँ नासहि सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। सञ्जम यह न बिषय कै आसा ॥
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीम् ॥
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई ॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नी। बिषय आस दुर्बलता गी ॥
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई ॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥
सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पङ्कज नेहा ॥
श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीम् ॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बन्ध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥
अन्धकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥
दो0=बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।

बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धान्त अपेल ॥ 122(क) ॥

मसकहि करि बिंरञ्चि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥ 122(ख) ॥

श्लोक- विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ 122(ग) ॥

कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ॥
श्रुति सिद्धान्त इहि उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी ॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही ॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि सम्भु मन भावनि ॥
सत सङ्गति दुर्लभ संसारा। निमिष दण्ड भरि एकु बारा ॥
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥

दो. आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि सन्त समागम दीन ॥ 123(क) ॥

नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिन्धु रघुनायक थाह कि पावि कोइ ॥ 123 ॥

सुमिरि राम के गुन गन नाना। पुनि पुनि हरष भुसुण्डि सुजाना ॥
महिमा निगम नेति करि गाई। अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई। मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥
अस सुभाउ कहुँ सुनुँ न देखुँ। केहि खगेस रघुपति सम लेखुँ ॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद कृतग्य सन्न्यासी ॥
जोगी सूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पण्डित बिग्यानी ॥
तरहिं न बिनु सीँ मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामी ॥
सरन गेँ मो से अघ रासी। होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥

दो. जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहु अनुकूल ॥ 124(क) ॥

सुनि भुसुण्डि के बचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत सन्देह ॥ 124(ख) ॥

मै कृत्कृत्य भयुँ तव बानी। सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥
राम चरन नूतन रति भी। माया जनित बिपति सब गी ॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भे। मो कहँ नाथ बिबिध सुख दे ॥
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा। बन्दुँ तव पद बारहिं बारा ॥
पूरन काम राम अनुरागी। तुम्ह सम तात न कौ बड़भागी ॥
सन्त बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥
सन्त हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवि नवनीता। पर दुख द्रवहिं सन्त सुपुनीता ॥
जीवन जन्म सुफल मम भयू। तव प्रसाद संसय सब गयू ॥
जानेहु सदा मोहि निज किङ्कर। पुनि पुनि उमा कहि बिहङ्गबर ॥

दो. तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयु गरुड़ बैकुण्ठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥ 125(क) ॥

गिरिजा सन्त समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥ 125(ख) ॥

कहेउँ परम पुनीत इतिहासा। सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥
प्रनत कल्पतरु करुना पुञ्जा। उपजि प्रीति राम पद कञ्जा ॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई। सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥
तीर्थाटन साधन समुदाई। जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना। सञ्जम दम जप तप मख नाना ॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई। बिद्या बिनय बिबेक बड़आई ॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी ॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥

दो. मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरन्तर सुनहिं मानि बिस्वास ॥ 126 ॥

सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता। सोइ महि मण्डित पण्डित दाता ॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता। राम चरन जा कर मन राता ॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना। श्रुति सिद्धान्त नीक तेहिं जाना ॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़इ भजि रघुबीरा ॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी। धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥
धन्य सो भूपु नीति जो करी। धन्य सो द्विज निज धर्म न टरी ॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी। धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥
धन्य घरी सोइ जब सतसङ्गा। धन्य जन्म द्विज भगति अभङ्गा ॥

दो. सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ 127 ॥

मति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि। जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि। जो न भजि सचराचर स्वामिहि ॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ। सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसङ्गति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई। द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई। जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥

दो. राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करु श्रवन पुट पान ॥ 128 ॥

राम कथा गिरिजा मैं बरनी। कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥
संसृति रोग सजीवन मूरी। राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना। रघुपति भगति केर पन्थाना ॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥
मन कामना सिद्धि नर पावा। जे यह कथा कपट तजि गावा ॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीम् ॥
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई। गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥
नाथ कृपाँ मम गत सन्देहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥

दो. मैं कृतकृत्य भिउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥ 129 ॥

यह सुभ सम्भु उमा सम्बादा। सुख सम्पादन समन बिषादा ॥
भव भञ्जन गञ्जन सन्देहा। जन रञ्जन सज्जन प्रिय एहा ॥
राम उपासक जे जग माहीं। एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीम् ॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा। मैं यह पावन चरित सुहावा ॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। सन्तत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥
जासु पतित पावन बड़ बाना। गावहिं कबि श्रुति सन्त पुराना ॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई। राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥

छं. पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥ 1 ॥

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीम् ॥
सत पञ्च चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पञ्च जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥ 2 ॥

सुन्दर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमन्द तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥ 3 ॥

दो. मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥ 130(क) ॥

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम ॥ 130(ख) ॥

श्लोक-यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम्।
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥ 1 ॥

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ 2 ॥

मासपारायण, तीसवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, नवाँ विश्राम
———
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
सप्तमः सोपानः समाप्तः।
(उत्तरकाण्ड समाप्त)
——–
आरति श्रीरामायनजी की। कीरति कलित ललित सिय पी की ॥
गावत ब्रह्मादिक मुनि नारद। बालमीक बिग्यान बिसारद।
सुक सनकादि सेष अरु सारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी ॥ 1 ॥

गावत बेद पुरान अष्टदस। छो सास्त्र सब ग्रन्थन को रस।
मुनि जन धन सन्तन को सरबस। सार अंस सम्मत सबही की ॥ 2 ॥

गावत सन्तत सम्भु भवानी। अरु घटसम्भव मुनि बिग्यानी।
ब्यास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुसुण्डि गरुड के ही की ॥ 3 ॥

कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिङ्गार मुक्ति जुबती की।
दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब बिधि तुलसी की ॥ 4 ॥