अथ चरणशृङ्गरहित श्री नटराज स्तोत्रं
सदञ्चित-मुदञ्चित निकुञ्चित पदं झलझलं-चलित मञ्जु कटकम् ।
पतञ्जलि दृगञ्जन-मनञ्जन-मचञ्चलपदं जनन भञ्जन करम् ।
कदम्बरुचिमम्बरवसं परममम्बुद कदम्ब कविडम्बक गलम्
चिदम्बुधि मणिं बुध हृदम्बुज रविं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 1 ॥
हरं त्रिपुर भञ्जन-मनन्तकृतकङ्कण-मखण्डदय-मन्तरहितं
विरिञ्चिसुरसंहतिपुरन्धर विचिन्तितपदं तरुणचन्द्रमकुटम् ।
परं पद विखण्डितयमं भसित मण्डिततनुं मदनवञ्चन परं
चिरन्तनममुं प्रणवसञ्चितनिधिं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 2 ॥
अवन्तमखिलं जगदभङ्ग गुणतुङ्गममतं धृतविधुं सुरसरित्-
तरङ्ग निकुरुम्ब धृति लम्पट जटं शमनदम्भसुहरं भवहरम् ।
शिवं दशदिगन्तर विजृम्भितकरं करलसन्मृगशिशुं पशुपतिं
हरं शशिधनञ्जयपतङ्गनयनं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 3 ॥
अनन्तनवरत्नविलसत्कटककिङ्किणिझलं झलझलं झलरवं
मुकुन्दविधि हस्तगतमद्दल लयध्वनिधिमिद्धिमित नर्तन पदम् ।
शकुन्तरथ बर्हिरथ नन्दिमुख भृङ्गिरिटिसङ्घनिकटं भयहरम्
सनन्द सनक प्रमुख वन्दित पदं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 4 ॥
अनन्तमहसं त्रिदशवन्द्य चरणं मुनि हृदन्तर वसन्तममलम्
कबन्ध वियदिन्द्ववनि गन्धवह वह्निमख बन्धुरविमञ्जु वपुषम् ।
अनन्तविभवं त्रिजगदन्तर मणिं त्रिनयनं त्रिपुर खण्डन परम्
सनन्द मुनि वन्दित पदं सकरुणं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 5 ॥
अचिन्त्यमलिवृन्द रुचि बन्धुरगलं कुरित कुन्द निकुरुम्ब धवलम्
मुकुन्द सुर वृन्द बल हन्तृ कृत वन्दन लसन्तमहिकुण्डल धरम् ।
अकम्पमनुकम्पित रतिं सुजन मङ्गलनिधिं गजहरं पशुपतिम्
धनञ्जय नुतं प्रणत रञ्जनपरं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 6 ॥
परं सुरवरं पुरहरं पशुपतिं जनित दन्तिमुख षण्मुखममुं
मृडं कनक पिङ्गल जटं सनक पङ्कज रविं सुमनसं हिमरुचिम् ।
असङ्घमनसं जलधि जन्मगरलं कवलयन्त मतुलं गुणनिधिम्
सनन्द वरदं शमितमिन्दु वदनं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 7 ॥
अजं क्षितिरथं भुजगपुङ्गवगुणं कनक शृङ्गि धनुषं करलसत्
कुरङ्ग पृथु टङ्क परशुं रुचिर कुङ्कुम रुचिं डमरुकं च दधतम् ।
मुकुन्द विशिखं नमदवन्ध्य फलदं निगम वृन्द तुरगं निरुपमं
स चण्डिकममुं झटिति संहृतपुरं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 8 ॥
अनङ्गपरिपन्थिनमजं क्षिति धुरन्धरमलं करुणयन्तमखिलं
ज्वलन्तमनलं दधतमन्तकरिपुं सततमिन्द्र सुरवन्दितपदम् ।
उदञ्चदरविन्दकुल बन्धुशत बिम्बरुचि संहति सुगन्धि वपुषं
पतञ्जलि नुतं प्रणव पञ्जर शुकं पर चिदम्बर नटं हृदि भज ॥ 9 ॥
इति स्तवममुं भुजगपुङ्गव कृतं प्रतिदिनं पठति यः कृतमुखः
सदः प्रभुपद द्वितयदर्शनपदं सुललितं चरण शृङ्ग रहितम् ।
सरः प्रभव सम्भव हरित्पति हरिप्रमुख दिव्यनुत शङ्करपदं
स गच्छति परं न तु जनुर्जलनिधिं परमदुःखजनकं दुरितदम् ॥ 10 ॥
इति श्री पतञ्जलिमुनि प्रणीतं चरणशृङ्गरहित नटराज स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥