श्रीगणेशायनमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
द्वितीय सोपान (अयोध्या-काण्ड)
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशङ्करः पातु माम् ॥ 1 ॥
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा ॥ 2 ॥
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥ 3 ॥
दो. श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनुँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मङ्गल मोद बधाए ॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी ॥
रिधि सिधि सम्पति नदीं सुहाई। उमगि अवध अम्बुधि कहुँ आई ॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुन्दर सब भाँती ॥
कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरञ्चि करतूती ॥
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचन्द मुख चन्दु निहारी ॥
मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली ॥
राम रूपु गुनसीलु सुभ्AU। प्रमुदित होइ देखि सुनि र्AU ॥
दो. सब कें उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु ॥ 1 ॥
एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा ॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू ॥
नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखेम् ॥
तिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरि भाग दसरथ सम नाहीम् ॥
मङ्गलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिज थोर सबु तासू ॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा ॥
श्रवन समीप भे सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा ॥
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू ॥
दो. यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायु जाइ ॥ 2 ॥
कहि भुआलु सुनिअ मुनिनायक। भे राम सब बिधि सब लायक ॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमारे अरि मित्र उदासी ॥
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही ॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाई ॥
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीम् ॥
मोहि सम यहु अनुभयु न दूजें। सबु पायुँ रज पावनि पूजेम् ॥
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजहि नाथ अनुग्रह तोरेम् ॥
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू ॥
दो. राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार ॥ 3 ॥
सब बिधि गुरु प्रसन्न जियँ जानी। बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी ॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू। कहिअ कृपा करि करिअ समाजू ॥
मोहि अछत यहु होइ उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू ॥
प्रभु प्रसाद सिव सबि निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीम् ॥
पुनि न सोच तनु रहु कि ज्AU। जेहिं न होइ पाछें पछित्AU ॥
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए। मङ्गल मोद मूल मन भाए ॥
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीम् ॥
भयु तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी ॥
दो. बेगि बिलम्बु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमङ्गलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु ॥ 4 ॥
मुदित महिपति मन्दिर आए। सेवक सचिव सुमन्त्रु बोलाए ॥
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमङ्गल बचन सुनाए ॥
जौं पाँचहि मत लागै नीका। करहु हरषि हियँ रामहि टीका ॥
मन्त्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवँ परेउ जनु पानी ॥
बिनती सचिव करहि कर जोरी। जिअहु जगतपति बरिस करोरी ॥
जग मङ्गल भल काजु बिचारा। बेगिअ नाथ न लाइअ बारा ॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौण्ड़ जनु लही सुसाखा ॥
दो. कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ ॥ 5 ॥
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी ॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मङ्गल नाना ॥
चामर चरम बसन बहु भाँती। रोम पाट पट अगनित जाती ॥
मनिगन मङ्गल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अभिषेका ॥
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना ॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा ॥
रचहु मञ्जु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू ॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा ॥
दो. ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग ॥ 6 ॥
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा ॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करत राम हित मङ्गल काजा ॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा ॥
राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मङ्गल अङ्ग सुहाए ॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीम् ॥
भे बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेण्ट प्रिय केरी ॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहि सगुन फलु दूसर नाहीम् ॥
रामहि बन्धु सोच दिन राती। अण्डन्हि कमठ ह्रदु जेहि भाँती ॥
दो. एहि अवसर मङ्गलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु ॥ 7 ॥
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए ॥
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं। मङ्गल कलस सजन सब लागीम् ॥
चौकें चारु सुमित्राँ पुरी। मनिमय बिबिध भाँति अति रुरी ॥
आनँद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हँकारी ॥
पूजीं ग्रामदेबि सुर नागा। कहेउ बहोरि देन बलिभागा ॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू ॥
गावहिं मङ्गल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीम् ॥
दो. राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमङ्गल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि ॥ 8 ॥
तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए ॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आइ पद नायु माथा ॥
सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँति पूजि सनमाने ॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी ॥
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मङ्गल मूल अमङ्गल दमनू ॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती। पठिअ काज नाथ असि नीती ॥
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयु पुनीत आजु यहु गेहू ॥
आयसु होइ सो करौं गोसाई। सेवक लहि स्वामि सेवकाई ॥
दो. सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस ॥ 9 ॥
बरनि राम गुन सीलु सुभ्AU। बोले प्रेम पुलकि मुनिर्AU ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू ॥
राम करहु सब सञ्जम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू ॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयु। राम हृदयँ अस बिसमु भयू ॥
जनमे एक सङ्ग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई ॥
करनबेध उपबीत बिआहा। सङ्ग सङ्ग सब भे उछाहा ॥
बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बन्धु बिहाइ बड़एहि अभिषेकू ॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरु भगत मन कै कुटिलाई ॥
दो. तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनन्द।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चन्द ॥ 10 ॥
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना ॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिम् ॥
हाट बाट घर गलीं अथाई। कहहिं परसपर लोग लोगाई ॥
कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा ॥
कनक सिङ्घासन सीय समेता। बैठहिं रामु होइ चित चेता ॥
सकल कहहिं कब होइहि काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली ॥
तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा। चोरहि चन्दिनि राति न भावा ॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं। बारहिं बार पाय लै परहीम् ॥
दो. बिपति हमारि बिलोकि बड़इ मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु ॥ 11 ॥
सुनि सुर बिनय ठाढ़इ पछिताती। भिउँ सरोज बिपिन हिमराती ॥
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी ॥
बिसमय हरष रहित रघुर्AU। तुम्ह जानहु सब राम प्रभ्AU ॥
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी ॥
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची ॥
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती ॥
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी ॥
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई ॥
दो. नामु मन्थरा मन्दमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गी गिरा मति फेरि ॥ 12 ॥
दीख मन्थरा नगरु बनावा। मञ्जुल मङ्गल बाज बधावा ॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू ॥
करि बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती ॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकि लेउँ केहि भाँती ॥
भरत मातु पहिं गि बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी ॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारि आँसू ॥
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरेम् ॥
तबहुँ न बोल चेरि बड़इ पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि ॥
दो. सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु ॥ 13 ॥
कत सिख देइ हमहि कौ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई ॥
रामहि छाड़इ कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू ॥
भयु कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन ॥
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा ॥
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारेम् ॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई ॥
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी ॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़आवुँ तोरी ॥
दो. काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि ॥ 14 ॥
प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही ॥
सुदिनु सुमङ्गल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई ॥
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई ॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली ॥
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी ॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी ॥
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू ॥
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरेम् ॥
दो. भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमु करसि कारन मोहि सुनाउ ॥ 15 ॥
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी ॥
फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रुरेहि लागा ॥
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई ॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिनु राती ॥
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा ॥
कौ नृप हौ हमहि का हानी। चेरि छाड़इ अब होब कि रानी ॥
जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा ॥
तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़इ चूक हमारी ॥
दो. गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि।
सुरमाया बस बैरिनिहि सुह्द जानि पतिआनि ॥ 16 ॥
सादर पुनि पुनि पूँछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही ॥
तसि मति फिरी अहि जसि भाबी। रहसी चेरि घात जनु फाबी ॥
तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेर्AUँ। धरेउ मोर घरफोरी न्AUँ ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़इ छोली। अवध साढ़साती तब बोली ॥
प्रिय सिय रामु कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी ॥
रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समु फिरें रिपु होहिं पिंरीते ॥
भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करि सोइ छारा ॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूँधहु करि उपाउ बर बारी ॥
दो. तुम्हहि न सोचु सोहाग बल निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ ॥ 17 ॥
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी ॥
पठे भरतु भूप ननिऔरें। राम मातु मत जानव रुरेम् ॥
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी केम् ॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई ॥
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकि नहिं देखी ॥
रची प्रम्पचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई ॥
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका ॥
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही ॥
दो. रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु ॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु ॥ 18 ॥
भावी बस प्रतीति उर आई। पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई ॥
का पूछहुँ तुम्ह अबहुँ न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना ॥
भयु पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू ॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें। सत्य कहें नहिं दोषु हमारेम् ॥
जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौ बिधि देइहि हमहि सजाई ॥
रामहि तिलक कालि जौं भयू।þ तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयू ॥
रेख खँचाइ कहुँ बलु भाषी। भामिनि भिहु दूध कि माखी ॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौ घर रहहु न आन उपाई ॥
दो. कद्रूँ बिनतहि दीन्ह दुखु तुम्हहि कौसिलाँ देब।
भरतु बन्दिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब ॥ 19 ॥
कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकि कछु सहमि सुखानी ॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुबरीं दसन जीभ तब चाँपी ॥
कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी ॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहि मानि मराली ॥
सुनु मन्थरा बात फुरि तोरी। दहिनि आँखि नित फरकि मोरी ॥
दिन प्रति देखुँ राति कुसपने। कहुँ न तोहि मोह बस अपने ॥
काह करौ सखि सूध सुभ्AU। दाहिन बाम न जानुँ क्AU ॥
दो. अपने चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह।
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअँ दुसह दुखु दीन्ह ॥ 20 ॥
नैहर जनमु भरब बरु जाइ। जिअत न करबि सवति सेवकाई ॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही ॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी ॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना ॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका ॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नीन्द न जामिनि ॥
पूँछेउ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची ॥
भामिनि करहु त कहौं उप्AU। है तुम्हरीं सेवा बस र्AU ॥
दो. परुँ कूप तुअ बचन पर सकुँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि ॥ 21 ॥
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई ॥
लखि न रानि निकट दुखु कैंसे। चरि हरित तिन बलिपसु जैसेम् ॥
सुनत बात मृदु अन्त कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी ॥
कहि चेरि सुधि अहि कि नाही। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीम् ॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़आवहु छाती ॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासु ॥
भूपति राम सपथ जब करी। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरी ॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तेम् ॥
दो. बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु ॥ 22 ॥
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बड़इ बुद्धि बखानी ॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कि भिसि अधारा ॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली ॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनि कैकेई ॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भि कुमति कैकेई केरी ॥
पाइ कपट जलु अङ्कुर जामा। बर दौ दल दुख फल परिनामा ॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई ॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई ॥
दो. प्रमुदित पुर नर नारि। सब सजहिं सुमङ्गलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार ॥ 23 ॥
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीम् ॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी ॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़आई ॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीम् ॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। हौ नात यह ओर निबाहू ॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू ॥
को न कुसङ्गति पाइ नसाई। रहि न नीच मतें चतुराई ॥
दो. साँस समय सानन्द नृपु गयु कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ ॥ 24 ॥
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ। भय बस अगहुड़ परि न प्AU ॥
सुरपति बसि बाहँबल जाके। नरपति सकल रहहिं रुख ताकेम् ॥
सो सुनि तिय रिस गयु सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़आई ॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे ॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयू। देखि दसा दुखु दारुन भयू ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषण नाना ॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अन अहिवातु सूच जनु भाबी ॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी ॥
छं. केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारी।
मानहुँ सरोष भुअङ्ग भामिनि बिषम भाँति निहारी ॥
दौ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखी।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखी ॥
सो. बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर ॥ 25 ॥
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा ॥
कहु केहि रङ्कहि करौ नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू ॥
सकुँ तोर अरि अमरु मारी। काह कीट बपुरे नर नारी ॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चन्द चकोरू ॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरेम् ॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही ॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता ॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू ॥
दो. यह सुनि मन गुनि सपथ बड़इ बिहसि उठी मतिमन्द।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फन्द ॥ 26 ॥
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मञ्जुल बानी ॥
भामिनि भयु तोर मनभावा। घर घर नगर अनन्द बधावा ॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मङ्गल साजू ॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदु कठोरू। जनु छुइ गयु पाक बरतोरू ॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई ॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़आई ॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू ॥
कपट सनेहु बढ़आइ बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी ॥
दो. मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत सन्देहु ॥ 27 ॥
जानेउँ मरमु राउ हँसि कही। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अही ॥
थाति राखि न मागिहु क्AU। बिसरि गयु मोहि भोर सुभ्AU ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू ॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई ॥
नहिं असत्य सम पातक पुञ्जा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुञ्जा ॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए ॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई ॥
बात दृढ़आइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली ॥
दो. भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहङ्ग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयङ्करु बाजु ॥ 28 ॥
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका ॥
मागुँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी ॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी ॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू ॥
गयु सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा ॥
बिबरन भयु निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू ॥
माथे हाथ मूदि दौ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन ॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला ॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हसि अचल बिपति कै नेईम् ॥
दो. कवनें अवसर का भयु गयुँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास ॥ 29 ॥
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा ॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही ॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारे ॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसन्ध तुम्ह रघुकुल माहीम् ॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू ॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना ॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा ॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई ॥
दो. धरम धुरन्धर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ ॥ 30 ॥
आगें दीखि जरत रिस भारी। मनहुँ रोष तरवारि उघारी ॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई ॥
लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा ॥
बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती ॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती। भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती ॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी। सत्य कहुँ करि सङ्करू साखी ॥
अवसि दूतु मैं पठिब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दौ भ्राता ॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहुँ राजु बजाई ॥
दो. लोभु न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति।
मैं बड़ छोट बिचारि जियँ करत रहेउँ नृपनीति ॥ 31 ॥
राम सपथ सत कहूँ सुभ्AU। राममातु कछु कहेउ न क्AU ॥
मैं सबु कीन्ह तोहि बिनु पूँछें। तेहि तें परेउ मनोरथु छूछेम् ॥
रिस परिहरू अब मङ्गल साजू। कछु दिन गेँ भरत जुबराजू ॥
एकहि बात मोहि दुखु लागा। बर दूसर असमञ्जस मागा ॥
अजहुँ हृदय जरत तेहि आँचा। रिस परिहास कि साँचेहुँ साँचा ॥
कहु तजि रोषु राम अपराधू। सबु कौ कहि रामु सुठि साधू ॥
तुहूँ सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयु सन्देहू ॥
जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला ॥
दो. प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु।
जेहिं देखाँ अब नयन भरि भरत राज अभिषेकु ॥ 32 ॥
जिऐ मीन बरू बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिऐ दुख दीना ॥
कहुँ सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीम् ॥
समुझि देखु जियँ प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस आधीना ॥
सुनि म्रदु बचन कुमति अति जरी। मनहुँ अनल आहुति घृत परी ॥
कहि करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया ॥
देहु कि लेहु अजसु करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपञ्च सोहाहीं।
रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने ॥
जस कौसिलाँ मोर भल ताका। तस फलु उन्हहि देउँ करि साका ॥
दो. होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं।
मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिम् ॥ 33 ॥
अस कहि कुटिल भी उठि ठाढ़ई। मानहुँ रोष तरङ्गिनि बाढ़ई ॥
पाप पहार प्रगट भि सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई ॥
दौ बर कूल कठिन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन प्रचारा ॥
ढाहत भूपरूप तरु मूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला ॥
लखी नरेस बात फुरि साँची। तिय मिस मीचु सीस पर नाची ॥
गहि पद बिनय कीन्ह बैठारी। जनि दिनकर कुल होसि कुठारी ॥
मागु माथ अबहीं देउँ तोही। राम बिरहँ जनि मारसि मोही ॥
राखु राम कहुँ जेहि तेहि भाँती। नाहिं त जरिहि जनम भरि छाती ॥
दो. देखी ब्याधि असाध नृपु परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ ॥ 34 ॥
ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता ॥
कण्ठु सूख मुख आव न बानी। जनु पाठीनु दीन बिनु पानी ॥
पुनि कह कटु कठोर कैकेई। मनहुँ घाय महुँ माहुर देई ॥
जौं अन्तहुँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तुम्ह केहिं बल कहेऊ ॥
दुइ कि होइ एक समय भुआला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला ॥
दानि कहाउब अरु कृपनाई। होइ कि खेम कुसल रौताई ॥
छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू ॥
तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसन्ध कहुँ तृन सम बरनी ॥
दो. मरम बचन सुनि राउ कह कहु कछु दोषु न तोर।
लागेउ तोहि पिसाच जिमि कालु कहावत मोर ॥ 35 ॥ û
चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरेम् ॥
सो सबु मोर पाप परिनामू। भयु कुठाहर जेहिं बिधि बामू ॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई ॥
करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़आई ॥
तोर कलङ्कु मोर पछित्AU। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि क्AU ॥
अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई ॥
जब लगि जिऔं कहुँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी ॥
फिरि पछितैहसि अन्त अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी ॥
दो. परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु।
कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु ॥ 36 ॥
राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पङ्ख बिहङ्ग बेहालू ॥
हृदयँ मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई ॥
उदु करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहि उर ॥
भूप प्रीति कैकि कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई ॥
बिलपत नृपहि भयु भिनुसारा। बीना बेनु सङ्ख धुनि द्वारा ॥
पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहि जनु लागहिं सायक ॥
मङ्गल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहि बिभूषन जैसेम् ॥
तेहिं निसि नीद परी नहि काहू। राम दरस लालसा उछाहू ॥
दो. द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि।
जागेउ अजहुँ न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि ॥ 37 ॥
पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा ॥
जाहु सुमन्त्र जगावहु जाई। कीजिअ काजु रजायसु पाई ॥
गे सुमन्त्रु तब राउर माही। देखि भयावन जात डेराहीम् ॥
धाइ खाइ जनु जाइ न हेरा। मानहुँ बिपति बिषाद बसेरा ॥
पूछें कौ न ऊतरु देई। गे जेंहिं भवन भूप कैकईइ ॥
कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। दैखि भूप गति गयु सुखाई ॥
सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुँ कमल मूलु परिहरेऊ ॥
सचिउ सभीत सकि नहिं पूँछी। बोली असुभ भरी सुभ छूछी ॥
दो. परी न राजहि नीद निसि हेतु जान जगदीसु।
रामु रामु रटि भोरु किय कहि न मरमु महीसु ॥ 38 ॥
आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूँछेहु आई ॥
चलेउ सुमन्त्र राय रूख जानी। लखी कुचालि कीन्हि कछु रानी ॥
सोच बिकल मग परि न प्AU। रामहि बोलि कहिहि का र्AU ॥
उर धरि धीरजु गयु दुआरें। पूछँहिं सकल देखि मनु मारेम् ॥
समाधानु करि सो सबही का। गयु जहाँ दिनकर कुल टीका ॥
रामु सुमन्त्रहि आवत देखा। आदरु कीन्ह पिता सम लेखा ॥
निरखि बदनु कहि भूप रजाई। रघुकुलदीपहि चलेउ लेवाई ॥
रामु कुभाँति सचिव सँग जाहीं। देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीम् ॥
दो. जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु ॥
सहमि परेउ लखि सिङ्घिनिहि मनहुँ बृद्ध गजराजु ॥ 39 ॥
सूखहिं अधर जरि सबु अङ्गू। मनहुँ दीन मनिहीन भुअङ्गू ॥
सरुष समीप दीखि कैकेई। मानहुँ मीचु घरी गनि लेई ॥
करुनामय मृदु राम सुभ्AU। प्रथम दीख दुखु सुना न क्AU ॥
तदपि धीर धरि समु बिचारी। पूँछी मधुर बचन महतारी ॥
मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन ॥
सुनहु राम सबु कारन एहू। राजहि तुम पर बहुत सनेहू ॥
देन कहेन्हि मोहि दुइ बरदाना। मागेउँ जो कछु मोहि सोहाना।
सो सुनि भयु भूप उर सोचू। छाड़इ न सकहिं तुम्हार सँकोचू ॥
दो. सुत सनेह इत बचनु उत सङ्कट परेउ नरेसु।
सकहु न आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु ॥ 40 ॥
निधरक बैठि कहि कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी ॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना ॥
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखि धनुषबिद्या बर बीरू ॥
सब प्रसङ्गु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई ॥
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनन्द निधानू ॥
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मञ्जुल जनु बाग बिभूषन ॥
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी ॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा ॥
दो. मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि सम्मत जननी तोर ॥ 41 ॥
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा ॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी ॥
तेउ न पाइ अस समु चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीम् ॥
अम्ब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी ॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी ॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू ॥
जातें मोहि न कहत कछु र्AU। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभ्AU ॥
दो. सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलि जोङ्क जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान ॥ 42 ॥
रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई ॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना ॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बन्धु सुखदाता ॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू ॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेम्पन जेहिं अजसु न होई ॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे ॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे ॥
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए ॥
दो. गि मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह ॥ 43 ॥
अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे ॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे ॥
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई ॥
रामहि चिति रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू ॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा ॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीम् ॥
सुमिरि महेसहि कहि निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी ॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी ॥
दो. तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु ॥ 44 ॥
अजसु हौ जग सुजसु नस्AU। नरक परौ बरु सुरपुरु ज्AU ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होंही ॥
अस मन गुनि राउ नहिं बोला। पीपर पात सरिस मनु डोला ॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी ॥
देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी ॥
तात कहुँ कछु करुँ ढिठाई। अनुचितु छमब जानि लरिकाई ॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा ॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता। सुनि प्रसङ्गु भे सीतल गाता ॥
दो. मङ्गल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात ॥ 45 ॥
धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू ॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकेम् ॥
आयसु पालि जनम फलु पाई। ऐहुँ बेगिहिं हौ रजाई ॥
बिदा मातु सन आवुँ मागी। चलिहुँ बनहि बहुरि पग लागी ॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा। भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा ॥
नगर ब्यापि गि बात सुतीछी। छुअत चढ़ई जनु सब तन बीछी ॥
सुनि भे बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी ॥
जो जहँ सुनि धुनि सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई ॥
दो. मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ करुन रस कटकी उतरी अवध बजाइ ॥ 46 ॥
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी। जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी ॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावकु धरेऊ ॥
निज कर नयन काढ़इ चह दीखा। डारि सुधा बिषु चाहत चीखा ॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भि रघुबंस बेनु बन आगी ॥
पालव बैठि पेड़उ एहिं काटा। सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा ॥
सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना ॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभ्AU। सब बिधि अगहु अगाध दुर्AU ॥
निज प्रतिबिम्बु बरुकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई ॥
दो. काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ ॥ 47 ॥
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा ॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा ॥
जो हठि भयु सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु ॥
एक धरम परमिति पहिचाने। नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने ॥
सिबि दधीचि हरिचन्द कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी ॥
एक भरत कर सम्मत कहहीं। एक उदास भायँ सुनि रहहीम् ॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा ॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे। रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे ॥
दो. चन्दु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल ॥ 48 ॥
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीम् ॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह दाहु उर मिटा उछाहू ॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई केरी ॥
लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही ॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना ॥
करहु राम पर सहज सनेहू। केहिं अपराध आजु बनु देहू ॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू ॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा ॥
दो. सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जीहि बिनु राम ॥ 49 ॥
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलङ्क कोठि जनि होहू ॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू ॥
नाहिन रामु राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे ॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू ॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे ॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई। तौ कहि प्रगट जनावहु सोई ॥
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू ॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोकु कलङ्कु नसाई ॥
छं. जेहि भाँति सोकु कलङ्कु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही ॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चन्द बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी ॥
सो. सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी ॥ 50 ॥
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी ॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। चलीं कहत मतिमन्द अभागी ॥
राजु करत यह दैअँ बिगोई। कीन्हेसि अस जस करि न कोई ॥
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं। देहिं कुचालिहि कोटिक गारीम् ॥
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा ॥
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी ॥
अति बिषाद बस लोग लोगाई। गे मातु पहिं रामु गोसाई ॥
मुख प्रसन्न चित चौगुन च्AU। मिटा सोचु जनि राखै र्AU ॥
दो. नव गयन्दु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनन्दु अधिकान ॥ 51 ॥
रघुकुलतिलक जोरि दौ हाथा। मुदित मातु पद नायु माथा ॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे ॥
बार बार मुख चुम्बति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता ॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए ॥
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रङ्क धनद पदबी जनु पाई ॥
सादर सुन्दर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी ॥
कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मङ्गलकारी ॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कि अवधि अघाई ॥
दो. जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति ॥ 52 ॥
तात जाउँ बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू ॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भि बड़इ बार जाइ बलि मैआ ॥
मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला ॥
सुख मकरन्द भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवरुँ न भूला ॥
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी ॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू ॥
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मङ्गल कानन जाता ॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अम्ब अनुग्रह तोरेम् ॥
दो. बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।
आइ पाय पुनि देखिहुँ मनु जनि करसि मलान ॥ 53 ॥
बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके ॥
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी ॥
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू ॥
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी ॥
धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी ॥
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे ॥
राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा ॥
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयु कृसानू ॥
दो. निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसङ्गु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ ॥ 54 ॥
राखि न सकि न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू ॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू ॥
धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भि गति साँप छुछुन्दरि केरी ॥
राखुँ सुतहि करुँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बन्धु बिरोधू ॥
कहुँ जान बन तौ बड़इ हानी। सङ्कट सोच बिबस भि रानी ॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दौ सुत सम जानी ॥
सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी ॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका ॥
दो. राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचण्ड कलेसु ॥ 55 ॥
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़इ माता ॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौं कानन सत अवध समाना ॥
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी ॥
अन्तहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू ॥
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी ॥
जौं सुत कहौ सङ्ग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ सन्देहू ॥
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के ॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन ज्AUँ। मैं सुनि बचन बैठि पछित्AUँ ॥
दो. यह बिचारि नहिं करुँ हठ झूठ सनेहु बढ़आइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ ॥ 56 ॥
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई ॥
अवधि अम्बु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना ॥
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेण्टेहु आई ॥
जाहु सुखेन बनहि बलि ज्AUँ। करि अनाथ जन परिजन ग्AUँ ॥
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयु कराल कालु बिपरीता ॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी ॥
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा ॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई ॥
दो. समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बन्दि बैठि सिरु नाइ ॥ 57 ॥
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी ॥
बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता ॥
चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू ॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना ॥
चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी ॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीम् ॥
मञ्जु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी ॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहि पिआरी ॥
दो. पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु ॥ 58 ॥
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई ॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़आई। राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई ॥
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सीञ्चि सनेह सलिल प्रतिपाली ॥
फूलत फलत भयु बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा ॥
पलँग पीठ तजि गोद हिण्ड़ओरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा ॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहूँ। दीप बाति नहिं टारन कहूँ ॥
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चन्द किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकि किमि जोरी ॥
दो. करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जन्तु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि ॥ 59 ॥
बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरञ्चि बिषय सुख भोरी ॥
पाइन कृमि जिमि कठिन सुभ्AU। तिन्हहि कलेसु न कानन क्AU ॥
कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू ॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती ॥
सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी ॥
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई ॥
जौं सिय भवन रहै कह अम्बा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलम्बा ॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी ॥
दो. कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष ॥ 60 ॥
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समु समुझि मन माहीम् ॥
राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू ॥
आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू ॥
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई ॥
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा ॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी ॥
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुन्दरि समुझाएहु मृदु बानी ॥
कहुँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखुँ तोही ॥
दो. गुर श्रुति सम्मत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब सङ्कट सहे गालव नहुष नरेस ॥ 61 ॥
मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी ॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुन्दरि सिखवनु सुनहु हमारा ॥
जौ हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा ॥
काननु कठिन भयङ्करु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी ॥
कुस कण्टक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना ॥
चरन कमल मुदु मञ्जु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे ॥
कन्दर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे ॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा ॥
दो. भूमि सयन बलकल बसन असनु कन्द फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलिहिं सबुइ समय अनुकूल ॥ 62 ॥
नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीम् ॥
लागि अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी ॥
ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा ॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ ॥
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू ॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिऐ कि लवन पयोधि मराली ॥
नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला ॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चन्दबदनि दुखु कानन भारी ॥
दो. सहज सुह्द गुर स्वामि सिख जो न करि सिर मानि ॥
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ॥ 63 ॥
सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के ॥
सीतल सिख दाहक भि कैंसें। चकिहि सरद चन्द निसि जैंसेम् ॥
उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही ॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी ॥
लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़इ अबिनय मोरी ॥
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई ॥
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीम् ॥
दो. प्राननाथ करुनायतन सुन्दर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान ॥ 64 ॥
मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुह्रद समुदाई ॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुन्दर सुसील सुखदाई ॥
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते ॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू ॥
भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू ॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीम् ॥
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारेम् ॥
दो. खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल ॥ 65 ॥
बनदेवीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा ॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मञ्जु मनोज तुराई ॥
कन्द मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू ॥
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकि। रहिहुँ मुदित दिवस जिमि कोकी ॥
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे ॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना ॥
अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ सङ्ग मोहि छाड़इअ जनि ॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अन्तरजामी ॥
दो. राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबन्धु सन्दर सुखद सील सनेह निधान ॥ 66 ॥
मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी ॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौम् ॥
पाय पखारी बैठि तरु छाहीं। करिहुँ बाउ मुदित मन माहीम् ॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समु प्रानपति पेखेम् ॥
सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाग पलोटिहि सब निसि दासी ॥
बारबार मृदु मूरति जोही। लागहि तात बयारि न मोही।
को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिङ्घबधुहि जिमि ससक सिआरा ॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू ॥
दो. ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न ह्रदु बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान ॥ 67 ॥
अस कहि सीय बिकल भि भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी ॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना ॥
कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा ॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू ॥
कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई ॥
बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई ॥
फिरहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहुँ नयन मनोहर जोरी ॥
सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि ॥
दो. बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहुँ गात ॥ 68 ॥
लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भि भारी ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समु सनेहु न जाइ बखाना ॥
तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी ॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा ॥
तजब छोभु जनि छाड़इअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू ॥
सुनि सिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी ॥
बारहि बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही ॥
अचल हौ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गङ्ग जमुन जल धारा ॥
दो. सीतहि सासु असीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार ॥ 69 ॥
समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए ॥
कम्प पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा ॥
कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़ए। मीनु दीन जनु जल तें काढ़ए ॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृत सिरान हमारा ॥
मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा ॥
राम बिलोकि बन्धु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरेम् ॥
बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर ॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू ॥
दो. मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहि सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ॥ 70 ॥
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई ॥
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीम् ॥
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा ॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परि दुसह दुख भारू ॥
रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू ॥
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी ॥
रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भे ब्याकुल भारी ॥
सिअरें बचन सूखि गे कैंसें। परसत तुहिन तामरसु जैसेम् ॥
दो. उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ ॥ 71 ॥
दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईम् ॥
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी ॥
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मन्दरु मेरु कि लेहिं मराला ॥
गुर पितु मातु न जानुँ काहू। कहुँ सुभाउ नाथ पतिआहू ॥
जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई ॥
मोरें सबि एक तुम्ह स्वामी। दीनबन्धु उर अन्तरजामी ॥
धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही ॥
मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिन्धु परिहरिअ कि सोई ॥
दो. करुनासिन्धु सुबन्ध के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत ॥ 72 ॥
मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई ॥
मुदित भे सुनि रघुबर बानी। भयु लाभ बड़ गि बड़इ हानी ॥
हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अन्ध फिरि लोचन पाए।
जाइ जननि पग नायु माथा। मनु रघुनन्दन जानकि साथा ॥
पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी ॥
गी सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहु ओरा ॥
लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह बस करब अकाजू ॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ सङ्ग बिधि कहिहि कि नाही ॥
दो. समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ ॥ 73 ॥
धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुह्द बोली मृदु बानी ॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही ॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू ॥
जौ पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहिम् ॥
गुर पितु मातु बन्धु सुर साई। सेइअहिं सकल प्रान की नाईम् ॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही कै ॥
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातेम् ॥
अस जियँ जानि सङ्ग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू ॥
दो. भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौम तुम्हरें मन छाड़इ छलु कीन्ह राम पद ठाउँ ॥ 74 ॥
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई ॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी ॥
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीम् ॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू ॥
राग रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू ॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई ॥
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू ॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहि उपदेसू ॥
छं. उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दी।
रति हौ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नी ॥
सो. मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत सङ्कित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस ॥ 75 ॥
गे लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू ॥
बन्दि राम सिय चरन सुहाए। चले सङ्ग नृपमन्दिर आए ॥
कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी ॥
तन कृस दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने ॥
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिन पङ्ख बिहग अकुलाहीम् ॥
भि बड़इ भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा ॥
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे ॥
सिय समेत दौ तनय निहारी। ब्याकुल भयु भूमिपति भारी ॥
दो. सीय सहित सुत सुभग दौ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ ॥ 76 ॥
सकि न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू ॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा ॥
पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमु कत कीजै ॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू ॥
सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ ॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीम् ॥
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी ॥
करि जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई ॥
दो. -औरु करै अपराधु कौ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवन्त गति को जग जानै जोगु ॥ 77 ॥
रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी ॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरन्धर धीर सयाने ॥
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही ॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए ॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा ॥
औरु सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई ॥
सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी ॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू ॥
दो. -सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चन्द चन्दनि लगत जनु चकी अकुलानि ॥ 78 ॥
सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई ॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी ॥
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़इहि भीरा ॥
सुकृत सुजसु परलोकु नस्AU। तुम्हहि जान बन कहिहि न क्AU ॥
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा ॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे ॥
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू ॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई ॥
दो. सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बन्धु समेत।
बन्दि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत ॥ 79 ॥
निकसि बसिष्ठ द्वार भे ठाढ़ए। देखे लोग बिरह दव दाढ़ए ॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृन्द रघुबीर बोलाए ॥
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे ॥
जाचक दान मान सन्तोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे ॥
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौम्पि बोले कर जोरी ॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाई ॥
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी ॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी ॥
दो. मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन ॥ 80 ॥
एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।
गनपती गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई ॥
राम चलत अति भयु बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू ॥
कुसगुन लङ्क अवध अति सोकू। हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू ॥
गि मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमन्त्रु कहन अस लागे ॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।
एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना ॥
पुनि धरि धीर कहि नरनाहू। लै रथु सङ्ग सखा तुम्ह जाहू ॥
दो. -सुठि सुकुमार कुमार दौ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़आइ देखराइ बनु फिरेहु गेँ दिन चारि ॥ 81 ॥
जौ नहिं फिरहिं धीर दौ भाई। सत्यसन्ध दृढ़ब्रत रघुराई ॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी ॥
जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई ॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू ॥
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी ॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदम्बा। फिरि त होइ प्रान अवलम्बा ॥
नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भेँ बिधि बामा ॥
अस कहि मुरुछि परा महि र्AU। रामु लखनु सिय आनि देख्AU ॥
दो. -पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयु जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दौ भाइ ॥ 82 ॥
तब सुमन्त्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़आए ॥
चढ़इ रथ सीय सहित दौ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई ॥
चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा ॥
कृपासिन्धु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिम् ॥
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी ॥
घोर जन्तु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी ॥
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता ॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीम् ॥
दो. हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथाङ्ग सुक सारिका सारस हंस चकोर ॥ 83 ॥
राम बियोग बिकल सब ठाढ़ए। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़ए ॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी ॥
बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेंहि दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही ॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी ॥
सबहिं बिचार कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीम् ॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू ॥
चले साथ अस मन्त्रु दृढ़आई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई ॥
राम चरन पङ्कज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही ॥
दो. बालक बृद्ध बिहाइ गृँह लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ ॥ 84 ॥
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयु बिसेषी ॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई ॥
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए ॥
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे ॥
सीलु सनेहु छाड़इ नहिं जाई। असमञ्जस बस भे रघुराई ॥
लोग सोग श्रम बस गे सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई ॥
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती ॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता ॥
दो. राम लखन सुय जान चढ़इ सम्भु चरन सिरु नाइ ॥
सचिवँ चलायु तुरत रथु इत उत खोज दुराइ ॥ 85 ॥
जागे सकल लोग भेँ भोरू। गे रघुनाथ भयु अति सोरू ॥
रथ कर खोज कतहहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहु दिसि धावहिम् ॥
मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयु बिकल बड़ बनिक समाजू ॥
एकहि एक देंहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू ॥
निन्दहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना ॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा ॥
एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा ॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना ॥
दो. राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि ॥ 86 ॥
सीता सचिव सहित दौ भाई। सृङ्गबेरपुर पहुँचे जाई ॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दण्डवत हरषु बिसेषी ॥
लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायु रामा ॥
गङ्ग सकल मुद मङ्गल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला ॥
कहि कहि कोटिक कथा प्रसङ्गा। रामु बिलोकहिं गङ्ग तरङ्गा ॥
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई ॥
मज्जनु कीन्ह पन्थ श्रम गयू। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयू ॥
सुमिरत जाहि मिटि श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू ॥
दो. सुध्द सचिदानन्दमय कन्द भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु ॥ 87 ॥
यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बन्धु बोलाई ॥
लिए फल मूल भेण्ट भरि भारा। मिलन चलेउ हिँयँ हरषु अपारा ॥
करि दण्डवत भेण्ट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागेम् ॥
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई ॥
नाथ कुसल पद पङ्कज देखें। भयुँ भागभाजन जन लेखेम् ॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा ॥
कृपा करिअ पुर धारिअ प्AU। थापिय जनु सबु लोगु सिह्AU ॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना ॥
दो. बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयु दुखु भारु ॥ 88 ॥
राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठे बन बालक ऐसे ॥
एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा ॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना ॥
लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा ॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर सन्ध्या करन सिधाए ॥
गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई ॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी ॥
दो. सिय सुमन्त्र भ्राता सहित कन्द मूल फल खाइ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ ॥ 89 ॥
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी ॥
कछुक दूर सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन ॥
गुँह बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठाँव राखे अति प्रीती ॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़आई ॥
सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयु प्रेम बस ह्दयँ बिषादू ॥
तनु पुलकित जलु लोचन बही। बचन सप्रेम लखन सन कही ॥
भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा ॥
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे ॥
दो. सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगन्ध सुबास।
पलँग मञ्जु मनिदीप जहँ सब बिधि सकल सुपास ॥ 90 ॥
बिबिध बसन उपधान तुराई। छीर फेन मृदु बिसद सुहाई ॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीम् ॥
ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए ॥
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी ॥
जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाई। महि सोवत तेइ राम गोसाईम् ॥
पिता जनक जग बिदित प्रभ्AU। ससुर सुरेस सखा रघुर्AU ॥
रामचन्दु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही ॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू ॥
दो. कैकयनन्दिनि मन्दमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।
जेहीं रघुनन्दन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥ 91 ॥
भि दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी ॥
भयु बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी ॥
बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी ॥
काहु न कौ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
जोग बियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फन्दा ॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। सम्पती बिपति करमु अरु कालू ॥
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू ॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीम् ॥
दो. सपनें होइ भिखारि नृप रङ्कु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपञ्च जियँ जोइ ॥ 92 ॥
अस बिचारि नहिं कीजा रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू ॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपञ्च बियोगी ॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा ॥
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा ॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू ॥
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा ॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।
दो. भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल ॥ 93 ॥
मासपारायण, पन्द्रहवा विश्राम
सखा समुझि अस परिहरि मोहु। सिय रघुबीर चरन रत होहू ॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मङ्गल सुखदारा ॥
सकल सोच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा ॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमन्त्र नयन जल छाए ॥
हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोरि बचन अति दीना ॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा ॥
बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दौ भाई ॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी ॥
दो. नृप अस कहेउ गोसाईँ जस कहि करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ ॥ 94 ॥
तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई ॥
मन्त्रहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा ॥
सिबि दधीचि हरिचन्द नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा ॥
रन्तिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि सङ्कट नाना ॥
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना ॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा ॥
सम्भावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू ॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहूँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहूँ ॥
दो. पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिन्ता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि ॥ 95 ॥
तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करुँ तात कर जोरेम् ॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारेम् ॥
सुनि रघुनाथ सचिव सम्बादू। भयु सपरिजन बिकल निषादू ॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई ॥
कह सुमन्त्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू ॥
जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। सोइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया ॥
नतरु निपट अवलम्ब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना ॥
दो. मिकें ससरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान ॥
तँह तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान ॥ 96 ॥
बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती ॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना ॥
सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरतु त सब कर मिटै खभारू ॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही ॥
प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेङ्की ॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चन्द्रिका चन्दु तजि जाई ॥
पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई ॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी ॥
दो. आरति बस सनमुख भिउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात ॥ 97 ॥
पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरेम् ॥
ससुर चक्कवि कोसलर्AU। भुवन चारिदस प्रगट प्रभ्AU ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिङ्घासन आसनु देई ॥
ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू ॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा ॥
अगम पन्थ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा ॥
कोल किरात कुरङ्ग बिहङ्गा। मोहि सब सुखद प्रानपति सङ्गा ॥
दो. सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ ॥
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ ॥ 98 ॥
प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा ॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरेम् ॥
सुनि सुमन्त्रु सिय सीतलि बानी। भयु बिकल जनु फनि मनि हानी ॥
नयन सूझ नहिं सुनि न काना। कहि न सकि कछु अति अकुलाना ॥
राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँति। तदपि होति नहिं सीतलि छाती ॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनन्दन दीन्हे ॥
मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई ॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई ॥
दो. -रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिम् ॥ 99 ॥
जासु बियोग बिकल पसु ऐसे। प्रजा मातु पितु जीहहिं कैसेम् ॥
बरबस राम सुमन्त्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए ॥
मागी नाव न केवटु आना। कहि तुम्हार मरमु मैं जाना ॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कही। मानुष करनि मूरि कछु अही ॥
छुअत सिला भि नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई ॥
तरनिउ मुनि घरिनि होइ जाई। बाट परि मोरि नाव उड़आई ॥
एहिं प्रतिपालुँ सबु परिवारू। नहिं जानुँ कछु और कबारू ॥
जौ प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू ॥
छं. पद कमल धोइ चढ़आइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौम् ॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौम् ॥
सो. सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चिति जानकी लखन तन ॥ 100 ॥
कृपासिन्धु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेंहि तव नाव न जाई ॥
वेगि आनु जल पाय पखारू। होत बिलम्बु उतारहि पारू ॥
जासु नाम सुमरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिन्धु अपारा ॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा ॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥
अति आनन्द उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा ॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुञ्ज कौ नाहीम् ॥
दो. पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयु लेइ पार ॥ 101 ॥
उतरि ठाड़ भे सुरसरि रेता। सीयराम गुह लखन समेता ॥
केवट उतरि दण्डवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा ॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी ॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई ॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा ॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरेम् ॥
फिरती बार मोहि जे देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा ॥
दो. बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ ॥ 102 ॥
तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायु माथा ॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरुबि मोरी ॥
पति देवर सङ्ग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी ॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भि तब बिमल बारि बर बानी ॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही ॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरेम् ॥
तुम्ह जो हमहि बड़इ बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़आई ॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होपन हित निज बागीसा ॥
दो. प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ ॥ 103 ॥
गङ्ग बचन सुनि मङ्गल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकुला ॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू ॥
दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी ॥
नाथ साथ रहि पन्थु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई ॥
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई ॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहुँ रघुबीर दोहाई ॥
सहज सनेह राम लखि तासु। सङ्ग लीन्ह गुह हृदय हुलासू ॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे ॥
दो. तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ। ì
सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ॥ 104 ॥
तेहि दिन भयु बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
प्रात प्रातकृत करि रधुसाई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई ॥
सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी ॥
चारि पदारथ भरा भँडारु। पुन्य प्रदेस देस अति चारु ॥
छेत्र अगम गढ़उ गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा ॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा ॥
सङ्गमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा ॥
चवँर जमुन अरु गङ्ग तरङ्गा। देखि होहिं दुख दारिद भङ्गा ॥
दो. सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बन्दी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम ॥ 105 ॥
को कहि सकि प्रयाग प्रभ्AU। कलुष पुञ्ज कुञ्जर मृगर्AU ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा ॥
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्रीमुख तीरथराज बड़आई ॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा ॥
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमङ्गल देनी ॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पुजि जथाबिधि तीरथ देवा ॥
तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दण्डवत मुनि उर लाए ॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाइ। ब्रह्मानन्द रासि जनु पाई ॥
दो. दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनन्दु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि ॥ 106 ॥
कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे ॥
कन्द मूल फल अङ्कुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के ॥
सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए ॥
भे बिगतश्रम रामु सुखारे। भरव्दाज मृदु बचन उचारे ॥
आजु सुफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू ॥
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू ॥
लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हारें दरस आस सब पूजी ॥
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू ॥
दो. करम बचन मन छाड़इ छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार ॥
सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनन्द अघाने ॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ॥
सो बड सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू ॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीम् ॥
यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी ॥
भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए ॥
राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भे लहि लोयन लाहू ॥
देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुन्दरताई ॥
दो. राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।
चले सहित सिय लखन जन मुददित मुनिहि सिरु नाइ ॥ 108 ॥
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीम् ॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीम् ॥
साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए ॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहि मगु दीख हमारा ॥
मुनि बटु चारि सङ्ग तब दीन्हे। जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे ॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई ॥
ग्राम निकट जब निकसहि जाई। देखहि दरसु नारि नर धाई ॥
होहि सनाथ जनम फलु पाई। फिरहि दुखित मनु सङ्ग पठाई ॥
दो. बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम ॥ 109 ॥
सुनत तीरवासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी ॥
लखन राम सिय सुन्दरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़आई ॥
अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीम् ॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने ॥
सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई ॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीम् ॥
तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुञ्ज लघुबयस सुहावा ॥
कवि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी ॥
दो. सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दण्ड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ॥ 110 ॥
राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रङ्क जनु पारसु पावा ॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरे तन कह सबु कोऊ ॥
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ॥
कीन्ह निषाद दण्डवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ॥
पिअत नयन पुट रूपु पियूषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठे बन बालक ऐसे ॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी ॥
दो. तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह ॥ 111 ॥
पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ॥
चले ससीय मुदित दौ भाई। रबितनुजा कि करत बड़आई ॥
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दौ भ्राता ॥
राज लखन सब अङ्ग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारेम् ॥
मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ ॥
अगमु पन्थ गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी ॥
करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहि जो आयसु होई ॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई ॥
दो. एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपासिन्धु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन ॥ 112 ॥
जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीम् ॥
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए ॥
जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावति नाहीम् ॥
पुन्यपुञ्ज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी ॥
जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि। सीता लखन सहित घनस्यामहि ॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिम् ॥
जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़आई ॥
परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा ॥
दो. छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं।
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिम् ॥ 113 ॥
सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई ॥
सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृहकाजु बिसारी ॥
राम लखन सिय रूप निहारी। पाइ नयनफलु होहिं सुखारी ॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भे मगन देखि दौ बीरा ॥
बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी। लहि जनु रङ्कन्ह सुरमनि ढेरी ॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीम् ॥
रामहि देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे ॥
एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी ॥
दो. एक देखिं बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात ॥ 114 ॥
एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचिअ नाथ कहहिं मृदु बानी ॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी ॥
जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलम्बु कीन्ह बट छाहीम् ॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा ॥
एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचन्द्र मुख चन्द चकोरा ॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा ॥
दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के ॥
मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा ॥
दो. जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल ॥ 115 ॥
बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी ॥
राम लखन सिय सुन्दरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई ॥
थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से ॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीम् ॥
बार बार सब लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ ॥
राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं।
स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवाँरी ॥
राजकुअँर दौ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने ॥
दो. स्यामल गौर किसोर बर सुन्दर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन ॥ 116 ॥
मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवान्हपारायण, चौथा विश्राम
कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे ॥
सुनि सनेहमय मञ्जुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी ॥
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी ॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी ॥
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे ॥
बहुरि बदनु बिधु अञ्चल ढाँकी। पिय तन चिति भौंह करि बाँकी ॥
खञ्जन मञ्जु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि ॥
भि मुदित सब ग्रामबधूटीं। रङ्कन्ह राय रासि जनु लूटीम् ॥
दो. अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस ॥ 117 ॥
पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू ॥
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी ॥
दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी ॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीम् ॥
तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी ॥
सुनत नारि नर भे दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी ॥
मिटा मोदु मन भे मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने ॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा ॥
दो. लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ॥ 118 ॥ ý
फिरत नारि नर अति पछिताहीं। देअहि दोषु देहिं मन माहीम् ॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीम् ॥
निपट निरङ्कुस निठुर निसङ्कू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलङ्कू ॥
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठे बन राजकुमारा ॥
जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना ॥
ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता ॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा ॥
दो. जौं ए मुनि पट धर जटिल सुन्दर सुठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार ॥ 119 ॥
जौं ए कन्द मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीम् ॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भे बिधि न बनाए ॥
जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी ॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी ॥
इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा ॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए ॥
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिम् ॥
ते पुनि पुन्यपुञ्ज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे ॥
दो. एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।
किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर ॥ 120 ॥
नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकी साँझ समय जनु सोहीम् ॥
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ॥
परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे ॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा ॥
जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीम् ॥
जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए ॥
सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई। अब लगि गे कहाँ लगि भाई ॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई ॥
दो. अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिम् ॥
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिम् ॥ 121 ॥
गाँव गाँव अस होइ अनन्दू। देखि भानुकुल कैरव चन्दू ॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिम् ॥
कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू ॥
कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईम् ॥
ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए ॥
धन्य सो देसु सैलु बन ग्AUँ। जहँ जहँ जाहिं धन्य सोइ ठ्AUँ ॥
सुख पायु बिरञ्चि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही ॥
राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई ॥
दो. एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत ॥ 122 ॥
आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछेम् ॥
उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे ॥
बहुरि कहुँ छबि जसि मन बसी। जनु मधु मदन मध्य रति लसी ॥
उपमा बहुरि कहुँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही ॥
प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता ॥
सीय राम पद अङ्क बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ ॥
राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई ॥
खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीम् ॥
दो. जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दौ भाइ।
भव मगु अगमु अनन्दु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ ॥ 123 ॥
अजहुँ जासु उर सपनेहुँ क्AU। बसहुँ लखनु सिय रामु बट्AU ॥
राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुँ मुनि कोई ॥
तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी ॥
तहँ बसि कन्द मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई ॥
देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए ॥
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुन्दर गिरि काननु जलु पावन ॥
सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुञ्जत मञ्जु मधुप रस भूले ॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीम् ॥
दो. सुचि सुन्दर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयु लेन ॥ 124 ॥
मुनि कहुँ राम दण्डवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा ॥
देखि राम छबि नयन जुड़आने। करि सनमानु आश्रमहिं आने ॥
मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कन्द मूल फल मधुर मगाए ॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए ॥
बालमीकि मन आनँदु भारी। मङ्गल मूरति नयन निहारी ॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई ॥
तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी ॥
दो. तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ ॥ 125 ॥
देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भे सुकृत सब सुफल हमारे ॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई ॥
मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीम् ॥
मङ्गल मूल बिप्र परितोषू। दहि कोटि कुल भूसुर रोषू ॥
अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठ्AUँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ ज्AUँ ॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौ कछु काल कृपाला ॥
सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी ॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक सन्तत श्रुति सेतू ॥
छं. श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रूख पाइ कृपानिधान की ॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी ॥
सो. राम सरुप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नित निगम कह ॥ 126 ॥
जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे ॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा ॥
सोइ जानि जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हि होइ जाई ॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनन्दन। जानहिं भगत भगत उर चन्दन ॥
चिदानन्दमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी ॥
नर तनु धरेहु सन्त सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा ॥
राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे ॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा ॥
दो. पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ ॥ 127 ॥
सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने ॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी ॥
सुनहु राम अब कहुँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता ॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥
भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ॥
निदरहिं सरित सिन्धु सर भारी। रूप बिन्दु जल होहिं सुखारी ॥
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बन्धु सिय सह रघुनायक ॥
दो. जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकुताहल गुन गन चुनि राम बसहु हियँ तासु ॥ 128 ॥
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहि नित नासा ॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीम् ॥
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी ॥
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा ॥
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीम् ॥
मन्त्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा ॥
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना ॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी ॥
दो. सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति हौ।
तिन्ह कें मन मन्दिर बसहु सिय रघुनन्दन दौ ॥ 129 ॥
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा ॥
जिन्ह कें कपट दम्भ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया ॥
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी ॥
तुम्हहि छाड़इ गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीम् ॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी ॥
जे हरषहिं पर सम्पति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी ॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ॥
दो. स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मन्दिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दौ भ्रात ॥ 130 ॥
अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित सङ्कट सहहीम् ॥
नीति निपुन जिन्ह कि जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका ॥
गुन तुम्हार समुझि निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही ॥
जाति पाँति धनु धरम बड़आई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई ॥
सब तजि तुम्हहि रहि उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई ॥
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ॥
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा ॥
दो. जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरन्तर तासु मन सो राउर निज गेहु ॥ 131 ॥
एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए ॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहुँ समय सुखदायक ॥
चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू ॥
नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तपबल आनी ॥
सुरसरि धार नाउँ मन्दाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि ॥
अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीम् ॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू ॥
दो. चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ।
आए नहाए सरित बर सिय समेत दौ भाइ ॥ 132 ॥
रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू ॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा ॥
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना ॥
चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकि न घात मार मुठभेरी ॥
अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा ॥
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना ॥
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए ॥
बरनि न जाहि मञ्जु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला ॥
दो. लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत ॥ 133 ॥
मासपारायण, सत्रहँवा विश्राम
अमर नाग किन्नर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला ॥
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू ॥
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भे हम आजू ॥
करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए ॥
चित्रकूट रघुनन्दनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए ॥
आवत देखि मुदित मुनिबृन्दा। कीन्ह दण्डवत रघुकुल चन्दा ॥
मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीम् ॥
सिय सौमित्र राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिम् ॥
दो. जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृन्द।
करहि जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछन्द ॥ 134 ॥
यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई ॥
कन्द मूल फल भरि भरि दोना। चले रङ्क जनु लूटन सोना ॥
तिन्ह महँ जिन्ह देखे दौ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहि मगु जाता ॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई ॥
करहिं जोहारु भेण्ट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे ॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़ए। पुलक सरीर नयन जल बाढ़ए ॥
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने ॥
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी ॥
दो. अब हम नाथ सनाथ सब भे देखि प्रभु पाय।
भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय ॥ 135 ॥
धन्य भूमि बन पन्थ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा ॥
धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भे तुम्हहि निहारी ॥
हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा ॥
कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी ॥
हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई ॥
बन बेहड़ गिरि कन्दर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा ॥
तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब ॥
हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता ॥
दो. बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन ॥ 136 ॥
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा ॥
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे ॥
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए ॥
एहि बिधि सिय समेत दौ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई ॥
जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयु बनु मङ्गलदायकु ॥
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना ॥ मञ्जु बलित बर बेलि बिताना ॥
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए ॥
गञ्ज मञ्जुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहि सुख देनी ॥
दो. नीलकण्ठ कलकण्ठ सुक चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर ॥ 137 ॥
केरि केहरि कपि कोल कुरङ्गा। बिगतबैर बिचरहिं सब सङ्गा ॥
फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबन्द बिसेषी ॥
बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बनु सकल सिहाहीम् ॥
सुरसरि सरसि दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या ॥
सब सर सिन्धु नदी नद नाना। मन्दाकिनि कर करहिं बखाना ॥
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मन्दर मेरु सकल सुरबासू ॥
सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते ॥
बिन्धि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़आई पाई ॥
दो. चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
पुन्य पुञ्ज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति ॥ 138 ॥
नयनवन्त रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी ॥
परसि चरन रज अचर सुखारी। भे परम पद के अधिकारी ॥
सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मङ्गलमय अति पावन पावन ॥
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू ॥
पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई ॥
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होंहिं सहसानन ॥
सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मन्दर लेहीम् ॥
सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी ॥
दो. -छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।
करत न सपनेहुँ लखनु चितु बन्धु मातु पितु गेहु ॥ 139 ॥
राम सङ्ग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी ॥
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी ॥
नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी ॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा ॥
परनकुटी प्रिय प्रियतम सङ्गा। प्रिय परिवारु कुरङ्ग बिहङ्गा ॥
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कन्द मूल फर ॥
नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई ॥
लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू ॥
दो. -सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु ॥ 140 ॥
सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहि सोइ कहहीम् ॥
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।
जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीम् ॥
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई ॥
कृपासिन्धु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमु बिचारी ॥
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीम् ॥
प्रिया बन्धु गति लखि रघुनन्दनु। धीर कृपाल भगत उर चन्दनु ॥
लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता ॥
दो. रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयन्त समेत ॥ 141 ॥
जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसेम् ॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ॥
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी ॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमन्त्र अवध जिमि आवा ॥
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई ॥
मन्त्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयु बिषादू ॥
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी ॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पङ्ख बिहग अकुलाहीम् ॥
दो. नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भे निषाद सब रघुबर बाजि निहारि ॥ 142 ॥
धरि धीरज तब कहि निषादू। अब सुमन्त्र परिहरहु बिषादू ॥
तुम्ह पण्डित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी ॥
सोक सिथिल रथ सकि न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी ॥
चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे ॥
अढ़उकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछेम् ॥
जो कह रामु लखनु बैदेही। हिङ्करि हिङ्करि हित हेरहिं तेही ॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती ॥
दो. भयु निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरङ्ग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी सङ्ग ॥ 143 ॥
गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई ॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहि छनहिं छन मगन बिषादा ॥
सोच सुमन्त्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना ॥
रहिहि न अन्तहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू ॥
भे अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना ॥
अहह मन्द मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका ॥
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहँ कृपन धन रासि गवाँई ॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥
दो. बिप्र बिबेकी बेदबिद सम्मत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति ॥ 144 ॥
जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी ॥
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहु ॥
लोचन सजल डीठि भि थोरी। सुनि न श्रवन बिकल मति भोरी ॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी ॥
बिबरन भयु न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी ॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पन्थ सोच जिमि पापी ॥
बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई ॥
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई ॥
दो. -धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि ॥ 145 ॥
पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता ॥
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहुँ कवन सँदेस सुखारी ॥
राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई ॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही ॥
जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा ॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना ॥
देहुँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयुँ कुसल कुअँर पहुँचाई ॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू ॥
दो. -ह्रदु न बिदरेउ पङ्क जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु ॥
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु ॥ 146 ॥
एहि बिधि करत पन्थ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा ॥
बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा ॥
पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई ॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा ॥
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरेम् ॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए ॥
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे ॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें। निघटत नीर मीनगन जैंसेम् ॥
दो. -सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयु रनिवासु।
भवन भयङ्करु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु ॥ 147 ॥
अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भि बानी ॥
सुनि न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा ॥
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गीं लवाई ॥
जाइ सुमन्त्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चन्दु बिराजा ॥
आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना ॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती ॥
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पङ्ख परेउ सम्पाती ॥
राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही ॥
दो. देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दण्ड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमन्त्र कहँ रामु ॥ 148 ॥
भूप सुमन्त्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई ॥
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी ॥
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही ॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए ॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन सन्देसू ॥
राम रूप गुन सील सुभ्AU। सुमिरि सुमिरि उर सोचत र्AU ॥
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयु न हरषु हराँसू ॥
सो सुत बिछुरत गे न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना ॥
दो. सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहुँ सतिभाउ ॥ 149 ॥
पुनि पुनि पूँछत मन्त्रहि र्AU। प्रियतम सुअन सँदेस सुन्AU ॥
करहि सखा सोइ बेगि उप्AU। रामु लखनु सिय नयन देख्AU ॥
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पण्डित ग्यानी ॥
बीर सुधीर धुरन्धर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा ॥
जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा ॥
काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईम् ॥
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दौ सम धीर धरहिं मन माहीम् ॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़इअ सोच सकल हितकारी ॥
दो. प्रथम बासु तमसा भयु दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दौ बीर ॥ 150 ॥
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिङ्गरौर गवाँई ॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा ॥
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़आइ चढ़ए रघुराई ॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़ए प्रभु आयसु पाई ॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा ॥
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पङ्कज गहेहू ॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिन्ता मोरी ॥
बन मग मङ्गल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारेम् ॥
छं. तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौम् ॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी ॥
सो. गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति ॥ 151 ॥
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी ॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी ॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सीहु मातु सकल सम जानी ॥
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई ॥
तात भाँति तेहि राखब र्AU। सोच मोर जेहिं करै न क्AU ॥
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा ॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई ॥
दो. कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भि सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह ॥ 152 ॥
तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई ॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखुँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती ॥
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू ॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयू। हानि गलानि सोच बस भयू ॥
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू ॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा ॥
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी ॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा ॥
दो. भयु कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु ॥ 153 ॥
प्रान कण्ठगत भयु भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू ॥
इद्रीं सकल बिकल भिँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी ॥
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयु जियँ जाना।
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी ॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू ॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़एउ सकल प्रिय पथिक समाजू ॥
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़इहि सबु परिवारू ॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी ॥
दो. -प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयु आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सीञ्चत सीतल बारि ॥ 154 ॥
धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमन्त्र कहँ राम कृपालू ॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही ॥
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भि जुग सरिस सिराति न राती ॥
तापस अन्ध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई ॥
भयु बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा ॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा ॥
हा रघुनन्दन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते ॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
दो. राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयु सुरधाम ॥ 155 ॥
जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अण्ड अनेक अमल जसु छावा ॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा ॥
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी ॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा ॥
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी ॥
अँथयु आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू ॥
गारीं सकल कैकिहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीम् ॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी ॥
दो. तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास ॥ 156 ॥
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा ॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू ॥
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयु दौ भाई ॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए ॥
अनरथु अवध अरम्भेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तेम् ॥
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना ॥
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना ॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई ॥
दो. एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ ॥ 157 ॥
चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके ॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़आई ॥
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई ॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा ॥
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला ॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा ॥
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए ॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब सम्पति हारी ॥
दो. पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिम् ॥ 158 ॥
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी ॥
आवत सुत सुनि कैकयनन्दिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चन्दिनि ॥
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेण्टि भवन लेइ आई ॥
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा ॥
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती ॥
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारेम् ॥
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई ॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता ॥
दो. सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन ॥ 159 ॥
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मन्थरा सहाय बिचारी ॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ ॥
सुनत भरतु भे बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा ॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी ॥
चलत न देखन पायुँ तोही। तात न रामहि सौम्पेहु मोही ॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी ॥
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई ॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी ॥
दो. भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपु जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु ॥ 160 ॥
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति ॥
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू ॥
जीवत सकल जनम फल पाए। अन्त अमरपति सदन सिधाए ॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू ॥
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू ॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा ॥
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही ॥
पेड़ काटि तैं पालु सीञ्चा। मीन जिअन निति बारि उलीचा ॥
दो. हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भी बिधि सन कछु न बसाइ ॥ 161 ॥
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयू। खण्ड खण्ड होइ ह्रदु न गयू ॥
बर मागत मन भि नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा ॥
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही ॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी ॥
सरल सुसील धरम रत र्AU। सो किमि जानै तीय सुभ्AU ॥
अस को जीव जन्तु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीम् ॥
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही ॥
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई ॥
दो. राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहुँ कछु तोहि ॥ 162 ॥
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई ॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई ॥
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई ॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा ॥
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ॥
आह दिअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनिस पावा ॥
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोण्टी ॥
भरत दयानिधि दीन्हि छड़आई। कौसल्या पहिं गे दौ भाई ॥
दो. मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार ॥ 163 ॥
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झिँ आई ॥
देखत भरतु बिकल भे भारी। परे चरन तन दसा बिसारी ॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दौ भाई ॥
कैकि कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भि काहे न बाँझा ॥
कुल कलङ्कु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही ॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी ॥
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु ॥
धिग मोहि भयुँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी ॥
दो. मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि ॥
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि ॥ 164 ॥
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए ॥
भेण्टेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई ॥
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई ॥
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौञ्छि मृदु बचन उचारे ॥
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमु समुझि सोक परिहरहू ॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि ॥
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता ॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानि का तेहि भावा ॥
दो. पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमु हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165 ॥
मुख प्रसन्न मन रङ्ग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू ॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहि न राम चरन अनुरागी ॥
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा ॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले सङ्ग सिय अरु लघु भाई ॥
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गिउँ न सङ्ग न प्रान पठाए ॥
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तु न तजा तनु जीव अभागेम् ॥
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी ॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना ॥
दो. कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु ॥ 166 ॥
बिलपहिं बिकल भरत दौ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई ॥
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए ॥
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईम् ॥
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी ॥
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारेम् ॥
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हेम् ॥
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीम् ॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता ॥
दो. जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कि गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर ॥ 167 ॥
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीम् ॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ॥
लोभी लम्पट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा ॥
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु सम्मत मोरा ॥
जे नहिं साधुसङ्ग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे ॥
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई ॥
तजि श्रुतिपन्थु बाम पथ चलहीं। बञ्चक बिरचि बेष जगु छलहीम् ॥
तिन्ह कै गति मोहि सङ्कर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ ॥
दो. मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ ॥ 168 ॥
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे ॥
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी ॥
भेँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू ॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीम् ॥
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए ॥
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गि सब राती ॥
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए ॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे ॥
दो. तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु ॥ 169 ॥
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा ॥
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी ॥
चन्दन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगन्ध सुहाए ॥
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई ॥
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलाञ्जुलि दीन्ही ॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना ॥
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा ॥
भे बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना ॥
दो. सिङ्घासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम ॥ 170 ॥
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी ॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए ॥
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठे बोलि भरत दौ भाई ॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे ॥
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकि कुटिल कीन्हि जसि करनी ॥
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा ॥
कहत राम गुन सील सुभ्AU। सजल नयन पुलकेउ मुनिर्AU ॥
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी ॥
दो. सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ॥ 171 ॥
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू ॥
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीम् ॥
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना ॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू ॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी ॥
सोचिअ पुनि पति बञ्चक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरी। जो नहिं गुर आयसु अनुसरी ॥
दो. सोचिअ गृही जो मोह बस करि करम पथ त्याग।
सोचिअ जति प्रम्पच रत बिगत बिबेक बिराग ॥ 172 ॥
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावि भोगू ॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बन्धु बिरोधी ॥
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी ॥
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़इ छलु हरि जन होई ॥
सोचनीय नहिं कोसलर्AU। भुवन चारिदस प्रगट प्रभ्AU ॥
भयु न अहि न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा ॥
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा ॥
दो. कहहु तात केहि भाँति कौ करिहि बड़आई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु ॥ 173 ॥
सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी ॥
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू ॥
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा ॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी ॥
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना ॥
करहु सीस धरि भूप रजाई। हि तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई ॥
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी ॥
तनय जजातिहि जौबनु दयू। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयू ॥
दो. अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥ 174 ॥
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू ॥
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू ॥
बेद बिदित सम्मत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावि टीका ॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी ॥
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पण्डित केहीम् ॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीम् ॥
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि ॥
सौम्पेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ ॥
दो. कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि ॥ 175 ॥
कौसल्या धरि धीरजु कही। पूत पथ्य गुर आयसु अही ॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी ॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू ॥
परिजन प्रजा सचिव सब अम्बा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलम्बा ॥
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई ॥
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू ॥
गुर के बचन सचिव अभिनन्दनु। सुने भरत हिय हित जनु चन्दनु ॥
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी ॥
छं. सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भे।
लोचन सरोरुह स्त्रवत सीञ्चत बिरह उर अङ्कुर ने ॥
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की ॥
सो. भरतु कमल कर जोरि धीर धुरन्धर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि ॥ 176 ॥
मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव सम्मत सबही का ॥
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहुँ कीन्हा ॥
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी ॥
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू ॥
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई ॥
जद्यपि यह समुझत हुँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी केम् ॥
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू ॥
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू ॥
दो. पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु ॥ 177 ॥
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई ॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीम् ॥
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखेम् ॥
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू ॥
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा ॥
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई ॥
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू ॥
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सौ सनेह जड़ता बस कहहू ॥
दो. कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज ॥ 178 ॥
कहुँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू ॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीम् ॥
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू ॥
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा ॥
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनुँ सचेतू ॥
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू ॥
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे ॥
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़आई ॥
दो. कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर ॥ 179 ॥
कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे ॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे ॥
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठि अमरपुर पति हित कीन्हा ॥
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु सन्तापू ॥
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू ॥
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका ॥
कैकी जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीम् ॥
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई ॥
दो. ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥ 180 ॥
कैकि सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरञ्चि दीन्ह मोहि सोई ॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़आई ॥
तुम्ह सब कहहु कढ़आवन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका ॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही ॥
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई ॥
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीम् ॥
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू ॥
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू ॥
दो. राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहि सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि ॥ 181।
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भेँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ ॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कौ न कहिहि मोर मत नाहीम् ॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अन्तहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू ॥
एकि उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी ॥
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा ॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी ॥
दो. आपनि दारुन दीनता कहुँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ॥ 182 ॥
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा ॥
एकहिं आँक इहि मन माहीं। प्रातकाल चलिहुँ प्रभु पाहीम् ॥
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी ॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी ॥
सील सकुच सुठि सरल सुभ्AU। कृपा सनेह सदन रघुर्AU ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा ॥
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी ॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी ॥
दो. जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस ॥ 183 ॥
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे ॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मन्त्र सबीज सुनत जनु जागे ॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भे भारी ॥
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही ॥
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू ॥
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई ॥
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता ॥
अहि अघ अवगुन नहि मनि गही। हरि गरल दुख दारिद दही ॥
दो. अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मन्त्रु भल कीन्ह।
सोक सिन्धु बूड़त सबहि तुम्ह अवलम्बनु दीन्ह ॥ 184 ॥
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा ॥
चलत प्रात लखि निरनु नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के ॥
मुनिहि बन्दि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई ॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीम् ॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू ॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानि जनु गरदनि मारी ॥
कौ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहि जग जीवन लाहू ॥
दो. जरु सो सम्पति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥ 185 ॥
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना ॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू ॥
सम्पति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही ॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ॥
करि स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई ॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ॥
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा ॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे ॥
दो. आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ॥ 186 ॥
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी ॥
जागत सब निसि भयु बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना ॥
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू ॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे ॥
अरुन्धती अरु अगिनि सम्AU। रथ चढ़इ चले प्रथम मुनिर्AU ॥
बिप्र बृन्द चढ़इ बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना ॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना ॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़इ चढ़इ चलत भी सब रानी ॥
दो. सौम्पि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दौ भाइ ॥ 187 ॥
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी ॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीम् ॥
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे ॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली ॥
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी ॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू ॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़इ चलत भे दौ भाई ॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू ॥
दो. पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग ॥ 188 ॥
सी तीर बसि चले बिहाने। सृङ्गबेरपुर सब निअराने ॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करि सबिषादा ॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीम् ॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह सङ्ग कटकाई ॥
जानहिं सानुज रामहि मारी। करुँ अकण्टक राजु सुखारी ॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलङ्कु अब जीवन हानी ॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा ॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीम् ॥
दो. अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु ॥ 189 ॥
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा ॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ ॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभङ्गु सरीरा ॥
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़एं भाग असि पाइअ मीचू ॥
स्वामि काज करिहुँ रन रारी। जस धवलिहुँ भुवन दस चारी ॥
तजुँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरेम् ॥
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा ॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू ॥
दो. बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़आइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु ॥ 190 ॥
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़आवि करषा ॥
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचि रारी ॥
सुमिरि राम पद पङ्कज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़आइन्हि धनहीम् ॥
अँगरी पहिरि कूँड़इ सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीम् ॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़ए। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़ए ॥
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई ॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने ॥
दो. भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि ॥ 191 ॥
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे ॥
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुण्ड मुण्डमय मेदिनि करहीम् ॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझ्AU ढोलू ॥
एतना कहत छीङ्क भि बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए ॥
बूढ़उ एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी ॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहि अस बिग्रहु नाहीम् ॥
सुनि गुह कहि नीक कह बूढ़आ। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़आ ॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़इ हित हानि जानि बिनु जूझेम् ॥
दो. गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहुँ आइ ॥ 192 ॥
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरिँ दुराएँ ॥
अस कहि भेण्ट सँजोवन लागे। कन्द मूल फल खग मृग मागे ॥
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने ॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मङ्गल मूल सगुन सुभ पाए ॥
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दण्ड प्रनामू ॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा ॥
राम सखा सुनि सन्दनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा ॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई ॥
दो. करत दण्डवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेण्ट भि प्रेम न हृदयँ समाइ ॥ 193 ॥
भेण्टत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती ॥
धन्य धन्य धुनि मङ्गल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला ॥
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सीञ्चा ॥
तेहि भरि अङ्क राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता ॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुञ्ज समुहाहीम् ॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा ॥
करमनास जलु सुरसरि परी। तेहि को कहहु सीस नहिं धरी ॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भे ब्रह्म समाना ॥
दो. स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ॥ 194 ॥
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़आई ॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीम् ॥
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमङ्गल खेमा ॥
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू ॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़आ। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़आ ॥
धरि धीरजु पद बन्दि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी ॥
कुसल मूल पद पङ्कज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी ॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मङ्गल मोरेम् ॥
दो. समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजि रघुबीर पद जग बिधि बञ्चित सोइ ॥ 195 ॥
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती ॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयुँ भुवन भूषन तबही तेम् ॥
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई ॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीम् ॥
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा ॥
निरखि निषादु नगर नर नारी। भे सुखी जनु लखनु निहारी ॥
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेण्टेउ रामभद्र भरि बाहू ॥
सुनि निषादु निज भाग बड़आई। प्रमुदित मन लि चलेउ लेवाई ॥
दो. सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ ॥ 196 ॥
सृङ्गबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अङ्ग सिथिल तब ॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू ॥
एहि बिधि भरत सेनु सबु सङ्गा। दीखि जाइ जग पावनि गङ्गा ॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू ॥
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी ॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी ॥
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू ॥
जोरि पानि बर मागुँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू ॥
दो. एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ ॥ 197 ॥
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा ॥
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दौ भाई ॥
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी ॥
भाइहि सौम्पि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई ॥
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरेम् ॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देख्AU। नेकु नयन मन जरनि जुड़AU ॥
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए ॥
भरत बचन सुनि भयु बिषादू। तुरत तहाँ लि गयु निषादू ॥
दो. जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दण्ड प्रनामु ॥ 198 ॥
कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई ॥
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनि न कहत प्रीति अधिकाई ॥
कनक बिन्दु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे ॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी ॥
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना ॥
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही ॥
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू ॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़आई ॥
दो. पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदु न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि ॥ 199 ॥
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने ॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे ॥
मृदु मूरति सुकुमार सुभ्AU। तात बाउ तन लाग न क्AU ॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती ॥
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर ॥
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता ॥
बैरिउ राम बड़आई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीम् ॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा ॥
दो. सुखस्वरुप रघुबंसमनि मङ्गल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान ॥ 200 ॥
राम सुना दुखु कान न क्AU। जीवनतरु जिमि जोगवि र्AU ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती ॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कन्द मूल फल फूल अहारी ॥
धिग कैकेई अमङ्गल मूला। भिसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला ॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयु जेहि लागी ॥
कुल कलङ्कु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ ॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू ॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ॥
छं. बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी ॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मङ्गल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ ॥
सो. अन्तरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन ॥ 201 ॥
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा ॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी ॥
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकिहि खोरि निकामा ॥
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीम् ॥
एक सराहहिं भरत सनेहू। कौ कह नृपति निबाहेउ नेहू ॥
निन्दहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकि बिमोह बिषादहि ॥
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा ॥
गुरहि सुनावँ चढ़आइ सुहाईं। नीं नाव सब मातु चढ़आईम् ॥
दण्ड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा ॥
दो. प्रातक्रिया करि मातु पद बन्दि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ ॥ 202 ॥
कियु निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईम् ॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा ॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू ॥
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल सङ्ग जाहिं डोरिआए ॥
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा ॥
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए ॥
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा ॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी ॥
दो. भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥ 203 ॥
झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पङ्कज कोस ओस कन जैसेम् ॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयु दुखित सुनि सकल समाजू ॥
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए ॥
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने ॥
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे ॥
सकल काम प्रद तीरथर्AU। बेद बिदित जग प्रगट प्रभ्AU ॥
मागुँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करि कुकरमू ॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी ॥
दो. अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहुँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन ॥ 204 ॥
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहु गुर साहिब द्रोही ॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरेम् ॥
जलदु जनम भरि सुरति बिसारु। जाचत जलु पबि पाहन डारु ॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़ए प्रेमु सब भाँति भलाई ॥
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहेम् ॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भि मृदु बानि सुमङ्गल देनी ॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू ॥
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कौ प्रिय नाहीम् ॥
दो. तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल ॥ 205 ॥
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी ॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा ॥
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए ॥
दण्ड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमन्त भाग्य निज लेखे ॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे ॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे ॥
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू ॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई ॥
दो. तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकिहि दोसु नहिं गी गिरा मति धूति ॥ 206 ॥
यहु कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध सम्मत दोऊ ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकु बेदु बड़आई ॥
लोक बेद सम्मत सबु कही। जेहि पितु देइ राजु सो लही ॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़आई ॥
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भि सूला ॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अन्तहुँ पछितानी ॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू ॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत सन्तोषू ॥
दो. अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमङ्गल मूल जग रघुबर चरन सनेहु ॥ 207 ॥
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना ॥
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता ॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कौ नाहीम् ॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती ॥
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा ॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर केम् ॥
यह न अधिक रघुबीर बड़आई। प्रनत कुटुम्ब पाल रघुराई ॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू ॥
दो. तुम्ह कहँ भरत कलङ्क यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समु गनेसु ॥ 208 ॥
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किङ्कर कुमुद चकोरा ॥
उदित सदा अँथिहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना ॥
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही ॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकि करतबु राहू ॥
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा ॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ ॥
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुम्मगल खानी ॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीम् ॥
दो. जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भे आइ ॥
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ ॥ 209 ॥
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा ॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ ॥ ॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीम् ॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा ॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा ॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयू। कहि अस पेम मगन पुनि भयू ॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा ॥
दो. पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मण्डलिहि बोले गदगद बैन ॥ 210 ॥
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू ॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई ॥
तुम्ह सर्बग्य कहुँ सतिभ्AU। उर अन्तरजामी रघुर्AU ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू ॥
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू ॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए ॥
राम बिरहँ तजि तनु छनभङ्गू। भूप सोच कर कवन प्रसङ्गू ॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही ॥
दो. अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात ॥ 211 ॥
एहि दुख दाहँ दहि दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती ॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीम् ॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला ॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजन्त्रू। गाड़इ अवधि पढ़इ कठिन कुमन्त्रु ॥
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा ॥
मिटि कुजोगु राम फिरि आएँ। बसि अवध नहिं आन उपाएँ ॥
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़आई ॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी ॥
दो. करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कन्द मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥ 212 ॥
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयु कुअवसर कठिन सँकोचू ॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बन्दि बोले कर जोरी ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा ॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए ॥
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कन्द मूल फल आनहु जाई ॥
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए ॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता ॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई ॥
दो. राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज ॥ 213 ॥
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी ॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई ॥
मुनि पद बन्दि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू ॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना ॥
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे ॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हेम् ॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीम् ॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुन्दर सुखद जथा रुचि जेही ॥
दो. बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह ॥ 214 ॥
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका ॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी ॥
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना ॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से ॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची केम् ॥
रितु बसन्त बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी ॥
स्त्रक चन्दन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा ॥
दो. सम्पत चकी भरतु चक मुनि आयस खेलवार ॥
तेहि निसि आश्रम पिञ्जराँ राखे भा भिनुसार ॥ 215 ॥
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा ॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दण्डवत बिनय बहु भाषी ॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हेम् ॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू ॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया ॥
लखन राम सिय पन्थ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी ॥
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैम् ॥
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भि मृदु महि मगु मङ्गल मूला ॥
दो. किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहि बर बात।
तस मगु भयु न राम कहँ जस भा भरतहि जात ॥ 216 ॥
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चिते प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे ॥
ते सब भे परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू ॥
यह बड़इ बात भरत कि नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीम् ॥
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मङ्गलदाता ॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीम् ॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू ॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेण्ट न होई ॥
दो. रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि ॥ 217 ॥
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहस्रनयन बिनु लोचन जाने ॥
मायापति सेवक सन माया। करि त उलटि परि सुरराया ॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी ॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभ्AU। निज अपराध रिसाहिं न क्AU ॥
जो अपराधु भगत कर करी। राम रोष पावक सो जरी ॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा ॥
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही ॥
दो. मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु ॥ 218 ॥
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा ॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई ॥
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू ॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करि सो तस फलु चाखा ॥
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा ॥
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भे भगत पेम बस ॥
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी ॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई ॥
दो. राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल ॥ 219 ॥
सत्यसन्ध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी ॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू ॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी ॥
बरषि प्रसून हरषि सुरर्AU। लगे सराहन भरत सुभ्AU ॥
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीम् ॥
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा ॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना ॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए ॥
दो. रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़ए बिबेक जहाज ॥ 220 ॥
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयु समय सम सबहि सुपासू ॥
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी ॥
प्रात पार भे एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दौ भाई ॥
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछेम् ॥
तेहिं पाछें दौ बन्धु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादेम् ॥
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा ॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा ॥
दो. मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ ॥ 221 ॥
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीम् ॥
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली ॥
बेषु न सो सखि सीय न सङ्गा। आगें अनी चली चतुरङ्गा ॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि सन्देहु होइ एहिं भेदा ॥
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी ॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी ॥
कहि सपेम सब कथाप्रसङ्गू। जेहि बिधि राम राज रस भङ्गू ॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी ॥
दो. चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु ॥ 222 ॥
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू ॥
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बन्धु अस काहे न होई ॥
हम सब सानुज भरतहि देखें। भिन्ह धन्य जुबती जन लेखेम् ॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकि जननि जोगु सुतु नाहीम् ॥
कौ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन ॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी ॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा ॥
अस अनन्दु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा ॥
दो. भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिङ्घलबासिन्ह भयु बिधि बस सुलभ प्रयागु ॥ 223 ॥
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा ॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा ॥
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू ॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी ॥
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही ॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीम् ॥
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे ॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी ॥
दो. तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ ॥ 224 ॥
मङ्गल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू ॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू ॥
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके ॥
सिथिल अङ्ग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिम् ॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा ॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दौ बीरा ॥
देखि करहिं सब दण्ड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा ॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू ॥
दो. भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकि न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु ॥ 225।
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गे कोस दुइ दिनकर ढरकेम् ॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतेम् ॥
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा ॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए ॥
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी ॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भे सोचबस सोच बिमोचन ॥
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई ॥
अस कहि बन्धु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने ॥
छं. सनमानि सुर मुनि बन्दि बैठे उत्तर दिसि देखत भे।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गे ॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे ॥
दो. सुनत सुमङ्गल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल ॥ 226 ॥
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू ॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन सङ्ग चतुरङ्ग न थोरी ॥
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बन्धु सकोचू ॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही ॥
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने ॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू ॥
बिनु पूँछ कछु कहुँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई ॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहुँ अनुगामी ॥
दो. नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान ॥
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान ॥ 227 ॥
बिषी जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई ॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना ॥
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई ॥
कुटिल कुबन्ध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी ॥
करि कुमन्त्रु मन साजि समाजू। आए करै अकण्टक राजू ॥
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दौ भाई ॥
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली ॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ ॥
दो. ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़एउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान ॥ 228 ॥
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसङ्कू। केहि न राजमद दीन्ह कलङ्कू ॥
भरत कीन्ह यह उचित उप्AU। रिपु रिन रञ्च न राखब क्AU ॥
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई ॥
समुझि परिहि सौ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी ॥
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला ॥
प्रभु पद बन्दि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी ॥
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा ॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारेम् ॥
दो. छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान ॥ 229 ॥
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा ॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा ॥
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दौ भाई ॥
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करुँ रिस पाछिल आजू ॥
जिमि करि निकर दलि मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ॥
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातुँ खेता ॥
जौं सहाय कर सङ्करु आई। तौ मारुँ रन राम दोहाई ॥
दो. अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान ॥ 230 ॥
जगु भय मगन गगन भि बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी ॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकि को जाननिहारा ॥
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ ॥
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीम् ॥
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने ॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई ॥
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई ॥
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपञ्च महँ सुना न दीसा ॥
दो. भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ ॥
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिन्धु बिनसाइ ॥ 231 ॥
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिली। गगनु मगन मकु मेघहिं मिली ॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ऐ छोनी ॥
मसक फूँक मकु मेरु उड़आई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई ॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना ॥
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलि रचि परपञ्चु बिधाता ॥
भरतु हंस रबिबंस तड़आगा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा ॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी ॥
कहत भरत गुन सीलु सुभ्AU। पेम पयोधि मगन रघुर्AU ॥
दो. सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु ॥ 232 ॥
जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को ॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानि तुम्ह बिनु रघुनाथा ॥
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी ॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मन्दाकिनीं पुनीत नहाए ॥
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा ॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई ॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीम् ॥
रामु लखनु सिय सुनि मम न्AUँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठ्AUँ ॥
दो. मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर ॥ 233 ॥
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी ॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही ॥
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना ॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता ॥
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी ॥
जब समुझत रघुनाथ सुभ्AU। तब पथ परत उताइल प्AU ॥
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी ॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू ॥
दो. लगे होन मङ्गल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु ॥ 234 ॥
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने ॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू ॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़इत ग्रह मारी ॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी ॥
राम बास बन सम्पति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा ॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू ॥
भट जम नियम सैल रजधानी। सान्ति सुमति सुचि सुन्दर रानी ॥
सकल अङ्ग सम्पन्न सुर्AU। राम चरन आश्रित चित च्AU ॥
दो. जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकण्टक राजु पुरँ सुख सम्पदा सुकालु ॥ 235 ॥
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे ॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना ॥
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा ॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक सङ्गा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरङ्गा ॥
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिम् ॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मञ्जु मराल मुदित मन ॥
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मङ्गल चहु ओरा ॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मङ्गल मूला ॥
दो. राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु ॥ 236 ॥
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
तब केवट ऊँचें चढ़इ धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई ॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जम्बु रसाल तमाला ॥
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मञ्जु बिसाल देखि मनु मोहा ॥
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला ॥
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी ॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई ॥
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए ॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई ॥
दो. जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान ॥ 237 ॥
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी ॥
करत प्रनाम चले दौ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई ॥
हरषहिं निरखि राम पद अङ्का। मानहुँ पारसु पायु रङ्का ॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिम् ॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा ॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपन्थ सुर बरषहिं फूला ॥
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे ॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को ॥
दो. पेम अमिअ मन्दरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिन्धु रघुबीर ॥ 238 ॥
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा ॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमङ्गल सदनु सुहावन ॥
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा ॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे ॥
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधेम् ॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू ॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा ॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत ॥
दो. लसत मञ्जु मुनि मण्डली मध्य सीय रघुचन्दु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानन्दु ॥ 239 ॥
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन ॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई ॥
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने ॥
बन्धु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा ॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनी। सुकबि लखन मन की गति भनी ॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ई चङ्ग जनु खैञ्च खेलारू ॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा ॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषङ्ग धनु तीरा ॥
दो. बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान ॥ 240 ॥
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी ॥
परम पेम पूरन दौ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई ॥
कहहु सुपेम प्रगट को करी। केहि छाया कबि मति अनुसरी ॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा ॥
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को ॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती ॥
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी ॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे ॥
दो. मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेण्टेउ राम।
भूरि भायँ भेण्टे भरत लछिमन करत प्रनाम ॥ 241 ॥
भेण्टेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई ॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बन्दे। अभिमत आसिष पाइ अनन्दे ॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा ॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए ॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीम् ॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता ॥
कौ किछु कहि न कौ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा ॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि ॥
दो. नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग ॥ 242 ॥
सीलसिन्धु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू ॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला ॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दण्ड प्रनाम करन प्रभु लागे ॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेण्टे दौ भाई ॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दण्ड प्रनामू ॥
रामसखा रिषि बरबस भेण्टा। जनु महि लुठत सनेह समेटा ॥
रघुपति भगति सुमङ्गल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला ॥
एहि सम निपट नीच कौ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीम् ॥
दो. जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ ॥ 243 ॥
आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना ॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी ॥
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू ॥
यह बड़इ बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीम् ॥
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा ॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीम् ॥
प्रथम राम भेण्टी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई ॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी ॥
दो. भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु ॥
अम्ब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु ॥ 244 ॥
गुरतिय पद बन्दे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई ॥
गङ्ग गौरि सम सब सनमानीम् ॥ देहिं असीस मुदित मृदु बानी ॥
गहि पद लगे सुमित्रा अङ्का। जनु भेटीं सम्पति अति रङ्का ॥
पुनि जननि चरननि दौ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता ॥
अति अनुराग अम्ब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए ॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू ॥
मिलि जननहि सानुज रघुर्AU। गुर सन कहेउ कि धारिअ प्AU ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू ॥
दो. महिसुर मन्त्री मातु गुर गने लोग लिए साथ ॥
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ ॥ 245 ॥
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी ॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता ॥
बन्दि बन्दि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के ॥
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीम् ॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीम् ॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा ॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा ॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई ॥
दो. लागि लागि पग सबनि सिय भेण्टति अति अनुराग ॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग ॥ 246 ॥
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीम् ॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा ॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा ॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी ॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी ॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू ॥
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए ॥
ब्रतु निरम्बु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा ॥
दो. भोरु भेँ रघुनन्दनहि जो मुनि आयसु दीन्ह ॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह ॥ 247 ॥
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी ॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमङ्गल मूला ॥
सुद्ध सो भयु साधु सम्मत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस ॥
सुद्ध भेँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते ॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कन्द मूल फल अम्बु अहारी ॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ॥
सब समेत पुर धारिअ प्AU। आपु इहाँ अमरावति र्AU ॥
बहुत कहेउँ सब कियुँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई ॥
दो. धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम ॥ 248 ॥
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू ॥
सुनि गुर गिरा सुमङ्गल मूला। भयु मनहुँ मारुत अनुकुला ॥
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अङ्घ ओघ नसाहीम् ॥
मङ्गलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दण्डवत करि करि ॥
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीम् ॥
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी ॥
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती ॥
सुन्दर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीम् ॥
दो. सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुञ्जत भृङ्ग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहङ्ग बहुरङ्ग ॥ 249 ॥
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुन्दर स्वादु सुधा सी ॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कन्द मूल फल अङ्कुर जूरी ॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा ॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीम् ॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी ॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा ॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा ॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजु चहिअ जस राजा ॥
दो. यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अङ्कुर लेहु ॥ 250 ॥
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे ॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई ॥
यह हमारि अति बड़इ सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई ॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ॥
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीम् ॥
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस क्AU। यह रघुनन्दन दरस प्रभ्AU ॥
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे ॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे ॥
छं. लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीम् ॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा ॥
सो. बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भे पीन पावस प्रथम ॥ 251 ॥
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती ॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करि सरिस सेवकाई ॥
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीम् ॥
लखि सिय सहित सरल दौ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई ॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई ॥
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीम् ॥
यहु संसु सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीम् ॥
दो. निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच ॥ 252 ॥
कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली ॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू ॥
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी ॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुर्AU। राम जननि हठ करबि कि क्AU ॥
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमु बाम बिधाता ॥
जौं हठ करुँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू ॥
एकु जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी ॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठे रिषयँ बोलाई ॥
दो. गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ ॥ 253 ॥
बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना ॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू ॥
सत्यसन्ध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मङ्गल हेतू ॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी ॥
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कौ न राम सम जान जथारथु ॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला ॥
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई ॥
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही केम् ॥
दो. राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि सम्मत सोइ ॥ 254 ॥
सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मङ्गल मोद मूल मग एकू ॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुर्AU। कहहु समुझि सोइ करिअ उप्AU ॥
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी ॥
उतरु न आव लोग भे भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे ॥
भानुबंस भे भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़एरे ॥
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता ॥
दलि दुख सजि सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना ॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेङ्की। सकि को टारि टेक जो टेकी ॥
दो. बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ॥ 255 ॥
तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीम् ॥
सकुचुँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता ॥
तुम्ह कानन गवनहु दौ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई ॥
सुनि सुबचन हरषे दौ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता ॥
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भे राजा ॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी ॥
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे ॥
कानन करुँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू ॥
दो. अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान ॥ 256 ॥
भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भे बिदेहू ॥
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़इ तीर अबला सी ॥
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा ॥
औरु करिहि को भरत बड़आई। सरसी सीपि कि सिन्धु समाई ॥
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए ॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु ॥
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी ॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना ॥
दो. सब के उर अन्तर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ ॥ 257 ॥
आरत कहहिं बिचारि न क्AU। सूझ जूआरिहि आपन द्AU ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुर्AU। नाथ तुम्हारेहि हाथ उप्AU ॥
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषेम् ॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई ॥
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ ॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा ॥
तेहि तें कहुँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भि मति मोरी ॥
मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी ॥
दो. भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि ॥ 258 ॥
गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनन्दु बिसेषी ॥
भरतहि धरम धुरन्धर जानी। निज सेवक तन मानस बानी ॥
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मञ्जु मृदु मङ्गलमूला ॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयु न भुअन भरत सम भाई ॥
जे गुर पद अम्बुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी ॥
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकि भरत कर भागू ॥
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़आई ॥
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई ॥
दो. तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिन्धु प्रिय बन्धु सन कहहु हृदय कै बात ॥ 259 ॥
सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई ॥
लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू ॥
पुलकि सरीर सभाँ भे ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़एम् ॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानुँ निज नाथ सुभ्AU। अपराधिहु पर कोह न क्AU ॥
मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ॥
सिसुपन तेम परिहरेउँ न सङ्गू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भङ्गू ॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही ॥
दो. महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ॥ 260 ॥
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहु कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा ॥
मातु मन्दि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली ॥
फरि कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि सम्बुक काली ॥
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू ॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ॥
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा ॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू ॥
दो. साधु सभा गुर प्रभु निकट कहुँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपञ्चु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ॥ 261 ॥
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी ॥
देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ॥
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा ॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। सङ्करु साखि रहेउँ एहि घाएँ ॥
बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयु न बेहू ॥
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबि सहाई ॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ॥
दो. तेइ रघुनन्दनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावि काहि ॥ 262 ॥
सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी ॥
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू ॥
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी ॥
बोले उचित बचन रघुनन्दू। दिनकर कुल कैरव बन चन्दू ॥
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी ॥
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे ॥
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई ॥
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई ॥
दो. मिटिहहिं पाप प्रपञ्च सब अखिल अमङ्गल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार ॥ 263 ॥
कहुँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी ॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरि दुराएँ ॥
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीम् ॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना ॥
तात तुम्हहि मैं जानुँ नीकें। करौं काह असमञ्जस जीकेम् ॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी ॥
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू ॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहुँ सोइ कीन्हा ॥
दो. मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसन्ध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु ॥ 264 ॥
सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू ॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीम् ॥
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं।
सुधि करि अम्बरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा ॥
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा ॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा ॥
आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा ॥
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि ॥
दो. सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमङ्गल मूल जग भरत चरन अनुरागु ॥ 265 ॥
सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई ॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई ॥
देखु देवपति भरत प्रभ्AU। सहज सुभायँ बिबस रघुर्AU ॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीम् ॥
सुनो सुरगुर सुर सम्मत सोचू। अन्तरजामी प्रभुहि सकोचू ॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना ॥
करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका ॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा ॥
दो. कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ ॥ 266 ॥
कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अम्बुनिधि अन्तरजामी ॥
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला ॥
अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलेम् ॥
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई ॥
पाउ रोऽपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला ॥
यह नि रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई ॥
जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईम् ॥
देउ देवतरु सरिस सुभ्AU। सनमुख बिमुख न काहुहि क्AU ॥
दो. जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रङ्कु भल पोच ॥ 267 ॥
लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन सन्देहू ॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई ॥
जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहि तासु मति पोची ॥
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई ॥
स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका ॥
यह स्वारथ परमारथ सारु। सकल सुकृत फल सुगति सिङ्गारु ॥
देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी ॥
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना ॥
दो. सानुज पठिअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बन्धु दौ नाथ चलौं मैं साथ ॥ 268 ॥
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई ॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई ॥
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु ॥
कहुँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू ॥
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई ॥
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू ॥
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा ॥
प्रभु पद सपथ कहुँ सति भ्AU। जग मङ्गल हित एक उप्AU ॥
दो. प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब ॥ 269 ॥
भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥
असमञ्जस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी ॥
चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची ॥
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए ॥
करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भे निपट दुखारे ॥
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता ॥
सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चर बर जोरें हाथा ॥
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयु गोसाईम् ॥
दो. नाहि त कोसल नाथ कें साथ कुसल गि नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयु अनाथ ॥ 270 ॥
कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोक बस बौरा ॥
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू ॥
रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि ॥
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू ॥
नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू ॥
समुझि अवध असमञ्जस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ ॥
नृपहि धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठे अवध चतुर चर चारी ॥
बूझि भरत सति भाउ कुभ्AU। आएहु बेगि न होइ लख्AU ॥
दो. गे अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति ॥ 271 ॥
दूतन्ह आइ भरत कि करनी। जनक समाज जथामति बरनी ॥
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति ॥
धरि धीरजु करि भरत बड़आई। लिए सुभट साहनी बोलाई ॥
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे ॥
दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महीपाला ॥
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा ॥
खबरि लेन हम पठे नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायु माथा ॥
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे ॥
दो. सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनन्दनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु ॥ 272 ॥
गरि गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई ॥
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयु बहोरि रहब दिन चारी ॥
एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी ॥
रमा रमन पद बन्दि बहोरी। बिनवहिं अञ्जुलि अञ्चल जोरी ॥
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी ॥
सुबस बसु फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा ॥
एहि सुख सुधाँ सीञ्ची सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू ॥
दो. गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर हौ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कौ ॥ 273 ॥
सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निन्दहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी ॥
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन ॥
ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी ॥
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिम् ॥
लरिकाइहि ते रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी ॥
सील सकोच सिन्धु रघुर्AU। सुमुख सुलोचन सरल सुभ्AU ॥
कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे ॥
हम सम पुन्य पुञ्ज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे ॥
दो. प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा सम्भ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ॥ 274 ॥
भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा ॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीम् ॥
राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही ॥
आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती ॥
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे ॥
लगे जनक मुनिजन पद बन्दन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनन्दन ॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि ॥
दो. आश्रम सागर सान्त रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु ॥ 275 ॥
बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे ॥
सोच उसास समीर तंरगा। धीरज तट तरुबर कर भङ्गा ॥
बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा ॥
केवट बुध बिद्या बड़इ नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा ॥
बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे ॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अम्बुधि अकुलाई ॥
सोक बिकल दौ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ॥
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिन्धु अवगाही ॥
छं. अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा ॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कौ जो तरि सकै सरित सनेह की ॥
सो. किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ॥ 276 ॥
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा ॥
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़आई ॥
बिषी साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू ॥
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू ॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। रामघाट सब लोग नहाए ॥
सकल सोक सङ्कुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी ॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू ॥
दो. दौ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात ॥ 277 ॥
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी ॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा ॥
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका ॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीम् ॥
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयु बीति दिन पहर अढ़आई ॥
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू ॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना ॥
दो. तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लि आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार ॥ 278 ॥
कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा ॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा ॥
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला ॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू ॥
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई ॥
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई ॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे ॥
दल फल मूल कन्द बिधि नाना। पावन सुन्दर सुधा समाना ॥
दो. सादर सब कहँ रामगुर पठे भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार ॥ 279 ॥
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी ॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीम् ॥
सीता राम सङ्ग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू ॥
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही ॥
दाहिन दिउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही ॥
मन्दाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मङ्गल माला ॥
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कन्द मूल फल ॥
सुख समेत सम्बत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ॥
दो. एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ॥
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ॥ 280 ॥
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीम् ॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईम् ॥
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयु जनकराज रनिवासू ॥
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी ॥
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन ॥
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति ॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ॥
दो. सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ॥ 281 ॥
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़इ बिपरीत बिचित्रा ॥
जो सृजि पालि हरि बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी ॥
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू ॥
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता ॥
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी केम् ॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपञ्चु अस अचल अनादी ॥
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी ॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी ॥
दो. लखनु राम सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ॥ 282 ॥
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी ॥
राम सपथ मैं कीन्ह न क्AU। सो करि कहुँ सखी सति भ्AU ॥
भरत सील गुन बिनय बड़आई। भायप भगति भरोस भलाई ॥
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे ॥
जानुँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा ॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा ॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भीं सनेह बिकल सब रानी ॥
दो. कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकि उपदेसि ॥ 283 ॥
रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई ॥
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन ॥
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी ॥
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीम् ॥
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भि मगन करुन रस रानी ॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि ॥
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ ॥
देबि दण्ड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती ॥
दो. बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति के मिथिलेस सहाय ॥ 284 ॥
लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता ॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी ॥
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीम् ॥
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी ॥
रुरे अङ्ग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै ॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू ॥
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल ॥
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा ॥
दो. अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ ॥
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ ॥ 285 ॥
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी ॥
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई ॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की ॥
उर उमगेउ अम्बुधि अनुरागू। भयु भूप मनु मनहुँ पयागू ॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा ॥
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलम्बनु ॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की ॥
दो. सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समु सुधरमु बिचारि ॥ 286 ॥
तापस बेष जनक सिय देखी। भयु पेमु परितोषु बिसेषी ॥
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अण्ड करोरी ॥
गङ्ग अवनि थल तीनि बड़एरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे ॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ॥
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीम् ॥
लखि रुख रानि जनायु र्AU। हृदयँ सराहत सीलु सुभ्AU ॥
दो. बार बार मिलि भेण्ट सिय बिदा कीन्ह सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि ॥ 287 ॥
सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगन्ध सुधा ससि सारू ॥
मूदे सजल नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन ॥
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बन्ध बिमोचनि ॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू ॥
सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही ॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद ॥
भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती ॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू ॥
दो. निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि ॥ 288 ॥
अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी ॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी ॥
बरनि सप्रेम भरत अनुभ्AU। तिय जिय की रुचि लखि कह र्AU ॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीम् ॥
देबि परन्तु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की ॥
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ॥
साधन सिद्ध राम पग नेहू ॥ मोहि लखि परत भरत मत एहू ॥
दो. भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ ॥ 289 ॥
राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दम्पतिहि पलक सम बीती ॥
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ॥
गे नहाइ गुर पहीं रघुराई। बन्दि चरन बोले रुख पाई ॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी ॥
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भे सहत कलेसू ॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा ॥
अस कहि अति सकुचे रघुर्AU। मुनि पुलके लखि सीलु सुभ्AU ॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा ॥
दो. प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम ॥ 290 ॥
सो सुखु करमु धरमु जरि ज्AU। जहँ न राम पद पङ्कज भ्AU ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम पेम परधानू ॥
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीम् ॥
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकेम् ॥
आपु आश्रमहि धारिअ प्AU। भयु सनेह सिथिल मुनिर्AU ॥
करि प्रनाम तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए ॥
राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए ॥
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई।
दो. ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमञ्जस समन को समरथ एहि काल ॥ 291 ॥
सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे ॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाही ॥
रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ॥
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़आई ॥
तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भे प्रेम बस बिकल बिसेषी ॥
समु समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा ॥
भरत आइ आगें भि लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ॥
तात भरत कह तेरहुति र्AU। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभ्AU ॥
दो. राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ॥
सङ्कट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥ 292 ॥
सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी ॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू ॥
कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अम्बुनिधि आपुनु आजू ॥
सिसु सेवक आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी ॥
एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर ॥
छोटे बदन कहुँ बड़इ बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना ॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अन्ध प्रेमहि न प्रबोधू ॥
दो. राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें सम्मत सर्ब हित करिअ पेमु पहिचानि ॥ 293 ॥
भरत बचन सुनि देखि सुभ्AU। सहित समाज सराहत र्AU ॥
सुगम अगम मृदु मञ्जु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे ॥
ज्यौ मुख मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥
भूप भरत मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू ॥
सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा ॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी ॥
राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे ॥
सब कौ राम पेममय पेखा। भु अलेख सोच बस लेखा ॥
दो. रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज।
रचहु प्रपञ्चहि पञ्च मिलि नाहिं त भयु अकाजु ॥ 294 ॥
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही ॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया ॥
बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी ॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू ॥
बिधि हरि हर माया बड़इ भारी। सौ न भरत मति सकि निहारी ॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चन्दिनि कर कि चण्डकर चोरी ॥
भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू ॥
अस कहि सारद गि बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका ॥
दो. सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमन्त्र कुठाटु ॥
रचि प्रपञ्च माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु ॥ 295 ॥
करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू ॥
गे जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा ॥
समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा ॥
जनक भरत सम्बादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई ॥
तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू ॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी ॥
बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू ॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई ॥
दो. राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनि न उतरु देत ॥ 296 ॥
सभा सकुच बस भरत निहारी। रामबन्धु धरि धीरजु भारी ॥
कुसमु देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिन्धि जिमि घटज निवारा ॥
सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी ॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला ॥
करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे ॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहुँ बदन मृदु बचन कठोरा ॥
हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पङ्कज आई ॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मञ्जु मराली ॥
दो. निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु ॥ 297 ॥
प्रभु पितु मातु सुह्रद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अतंरजामी ॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू ॥
समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी ॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाई। मोहि समान मैं साइँ दोहाई ॥
प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयुँ इहाँ समाजु सकेली ॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू ॥
राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कौ नाहीम् ॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई ॥
दो. कृपाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहु ओर ॥ 298 ॥
राउरि रीति सुबानि बड़आई। जगत बिदित निगमागम गाई ॥
कूर कुटिल खल कुमति कलङ्की। नीच निसील निरीस निसङ्की ॥
तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए ॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने ॥
को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी ॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनेम् ॥
सो गोसाइँ नहि दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहुँ पन रोपी ॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना ॥
दो. यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर ॥ 299 ॥
सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयुँ लाइ रजायसु बाएँ ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा ॥
देखेउँ पाय सुमङ्गल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला ॥
बड़एं समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ईं चूक साहिब अनुरागू ॥
कृपा अनुग्रह अङ्गु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई ॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाईम् ॥
नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई ॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी ॥
दो. सुह्रद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़इ खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबि सुधारी मोरि ॥ 300 ॥
प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ॥
सो करि कहुँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की ॥
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई ॥
अग्या सम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा ॥
अस कहि प्रेम बिबस भे भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी ॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समु सनेहु न सो कहि जाई ॥
कृपासिन्धु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी ॥
भरत बिनय सुनि देखि सुभ्AU। सिथिल सनेहँ सभा रघुर्AU ॥
छं. रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी ॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से ॥
सो. देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मङ्गल चहत ॥ 301 ॥
कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू ॥
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती ॥
प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला ॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे ॥
भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीम् ॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिन्धु सङ्गम जनु बारी ॥
दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीम् ॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू ॥
दो. भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ ॥ 302 ॥
कृपासिन्धु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे ॥
सभा राउ गुर महिसुर मन्त्री। भरत भगति सब कै मति जन्त्री ॥
रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से ॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़आई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई ॥
जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू ॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी ॥
आपु छोटि महिमा बड़इ जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी ॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई ॥
दो. भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि ॥ 303 ॥
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ ॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को ॥
सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभ तेहि सरिस बाम को ॥
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की ॥
धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर ॥
देसु काल लखि समु समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥
बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से ॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना ॥
दो. करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बन्धु गुन कुसमयँ किमि कहि जात ॥ 304 ॥
जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसन्ध पितु कीरति प्रीती ॥
समु समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की ॥
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू ॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहुँ अवसर अनुसारा ॥
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी ॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू ॥
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू ॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा ॥
दो. राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ॥ 305 ॥
सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा ॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू ॥
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू ॥
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी ॥
सो बिचारि सहि सङ्कटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी ॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़इ कठिनाई ॥
जानि तुम्हहि मृदु कहुँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा ॥
होहिं कुठायँ सुबन्धु सुहाए। ओड़इअहिं हाथ असनिहु के घाए ॥
दो. सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ॥ 306 ॥
सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी ॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी ॥
भरतहि भयु परम सन्तोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू ॥
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पङ्करुह जोरी ॥
नाथ भयु सुखु साथ गे को। लहेउँ लाहु जग जनमु भे को ॥
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई ॥
सो अवलम्ब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई ॥
दो. देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ ॥ 307 ॥
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीम् ॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई ॥
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ॥
प्रभु पद अङ्कित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी ॥
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू ॥
मुनि प्रसाद बनु मङ्गल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता ॥
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीम् ॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ॥
दो. भरत राम सम्बादु सुनि सकल सुमङ्गल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ॥ 308 ॥
धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयु उछाहू ॥
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन ॥
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे ॥
सुनि सुनि राम भरत सम्बादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू ॥
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी ॥
एक कहहिं रघुबीर बड़आई। एक सराहत भरत भलाई ॥
दो. अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप ॥ 309 ॥
भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई ॥
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गे जहँ कूप अगाधू ॥
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा ॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू ॥
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा ॥
बिधि बस भयु बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू ॥
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा ॥
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी ॥
दो. कहत कूप महिमा सकल गे जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायु रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ ॥ 310 ॥
कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयु भोरु निसि सो सुख बीती ॥
नित्य निबाहि भरत दौ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई ॥
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादेम् ॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भि मृदु भूमि सकुचि मन मनहीम् ॥
कुस कण्टक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईम् ॥
महि मञ्जुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे ॥
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीम् ॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी ॥
दो. सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़इ बात ॥ 311 ॥
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीम् ॥
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा ॥
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी ॥
सुनि मन मुदित कहत रिषिर्AU। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभ्AU ॥
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा ॥
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दौ भाई ॥
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा ॥
फिरहिं गेँ दिनु पहर अढ़आई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई ॥
दो. देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयु दिवसु भि साँझ ॥ 312 ॥
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू ॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीम् ॥
गुर नृप भरत सभा अवलोकी। सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ॥
सील सराहि सभा सब सोची। कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची ॥
भरत सुजान राम रुख देखी। उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी ॥
करि दण्डवत कहत कर जोरी। राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ॥
मोहि लगि सहेउ सबहिं सन्तापू। बहुत भाँति दुखु पावा आपू ॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई। सेवौं अवध अवधि भरि जाई ॥
दो. जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ॥ 313 ॥
पुरजन परिजन प्रजा गोसाई। सब सुचि सरस सनेहँ सगाई ॥
राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू ॥
स्वामि सुजानु जानि सब ही की। रुचि लालसा रहनि जन जी की ॥
प्रनतपालु पालिहि सब काहू। देउ दुहू दिसि ओर निबाहू ॥
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो। किएँ बिचारु न सोचु खरो सो ॥
आरति मोर नाथ कर छोहू। दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ॥
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी। तजि सकोच सिखिअ अनुगामी ॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी। खीर नीर बिबरन गति हंसी ॥
दो. दीनबन्धु सुनि बन्धु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ॥ 314 ॥
तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिन्ता गुरहि नृपहि घर बन की ॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू ॥
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु। स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु ॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई। लोक बेद भल भूप भलाई ॥
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें। चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालेम् ॥
अस बिचारि सब सोच बिहाई। पालहु अवध अवधि भरि जाई ॥
देसु कोसु परिजन परिवारू। गुर पद रजहिं लाग छरुभारू ॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी। पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ॥
दो. मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालि पोषि सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ॥ 315 ॥
राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई ॥
बन्धु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती ॥
भरत सील गुर सचिव समाजू। सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं। सादर भरत सीस धरि लीन्हीम् ॥
चरनपीठ करुनानिधान के। जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ॥
सम्पुट भरत सनेह रतन के। आखर जुग जुन जीव जतन के ॥
कुल कपाट कर कुसल करम के। बिमल नयन सेवा सुधरम के ॥
भरत मुदित अवलम्ब लहे तें। अस सुख जस सिय रामु रहे तेम् ॥
दो. मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ ॥ 316 ॥
सो कुचालि सब कहँ भि नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की ॥
नतरु लखन सिय सम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा ॥
रामकृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भि गुनद गोहारी ॥
भेण्टत भुज भरि भाइ भरत सो। राम प्रेम रसु कहि न परत सो ॥
तन मन बचन उमग अनुरागा। धीर धुरन्धर धीरजु त्यागा ॥
बारिज लोचन मोचत बारी। देखि दसा सुर सभा दुखारी ॥
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से। ग्यान अनल मन कसें कनक से ॥
जे बिरञ्चि निरलेप उपाए। पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ॥
दो. तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भे मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ॥ 317 ॥
जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़इ खोरी ॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ॥
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समु सनेहु सुमिरि सकुचानी ॥
भेण्टि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए ॥
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई ॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा ॥
प्रभु पद पदुम बन्दि दौ भाई। चले सीस धरि राम रजाई ॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी ॥
दो. लखनहि भेण्टि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमङ्गल मूरि ॥ 318 ॥
सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़आई ॥
देव दया बस बड़ दुखु पायु। सहित समाज काननहिं आयु ॥
पुर पगु धारिअ देइ असीसा। कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा ॥
मुनि महिदेव साधु सनमाने। बिदा किए हरि हर सम जाने ॥
सासु समीप गे दौ भाई। फिरे बन्दि पग आसिष पाई ॥
कौसिक बामदेव जाबाली। पुरजन परिजन सचिव सुचाली ॥
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा। बिदा किए सब सानुज रामा ॥
नारि पुरुष लघु मध्य बड़एरे। सब सनमानि कृपानिधि फेरे ॥
दो. भरत मातु पद बन्दि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेण्टि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि ॥ 319 ॥
परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता ॥
करि प्रनामु भेण्टी सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू ॥
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई। रही सीय दुहु प्रीति समाई ॥
रघुपति पटु पालकीं मगाईं। करि प्रबोधु सब मातु चढ़आई ॥
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई। सम सनेहँ जननी पहुँचाई ॥
साजि बाजि गज बाहन नाना। भरत भूप दल कीन्ह पयाना ॥
हृदयँ रामु सिय लखन समेता। चले जाहिं सब लोग अचेता ॥
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें। चले जाहिं परबस मन मारेम् ॥
दो. गुर गुरतिय पद बन्दि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत ॥ 320 ॥
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू ॥
कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी ॥
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं। प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीम् ॥
भरत सनेह सुभाउ सुबानी। प्रिया अनुज सन कहत बखानी ॥
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी। श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी ॥
तेहि अवसर खग मृग जल मीना। चित्रकूट चर अचर मलीना ॥
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की। बरषि सुमन कहि गति घर घर की ॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो। चले मुदित मन डर न खरो सो ॥
दो. सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर ॥ 321 ॥
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू ॥
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीम् ॥
जमुना उतरि पार सबु भयू। सो बासरु बिनु भोजन गयू ॥
उतरि देवसरि दूसर बासू। रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
सी उतरि गोमतीं नहाए। चौथें दिवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी ॥
सौम्पि सचिव गुर भरतहि राजू। तेरहुति चले साजि सबु साजू ॥
नगर नारि नर गुर सिख मानी। बसे सुखेन राम रजधानी ॥
दो. राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस ॥ 322 ॥
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे ॥
पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई। सौम्पी सकल मातु सेवकाई ॥
भूसुर बोलि भरत कर जोरे। करि प्रनाम बय बिनय निहोरे ॥
ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू ॥
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए। समाधानु करि सुबस बसाए ॥
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी। करि दण्डवत कहत कर जोरी ॥
आयसु होइ त रहौं सनेमा। बोले मुनि तन पुलकि सपेमा ॥
समुझव कहब करब तुम्ह जोई। धरम सारु जग होइहि सोई ॥
दो. सुनि सिख पाइ असीस बड़इ गनक बोलि दिनु साधि।
सिङ्घासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि ॥ 323 ॥
राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई ॥
नन्दिगावँ करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा ॥
जटाजूट सिर मुनिपट धारी। महि खनि कुस साँथरी सँवारी ॥
असन बसन बासन ब्रत नेमा। करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ॥
भूषन बसन भोग सुख भूरी। मन तन बचन तजे तिन तूरी ॥
अवध राजु सुर राजु सिहाई। दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई ॥
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा। चञ्चरीक जिमि चम्पक बागा ॥
रमा बिलासु राम अनुरागी। तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥
दो. राम पेम भाजन भरतु बड़ए न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेङ्क बिबेक बिभूति ॥ 324 ॥
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटि तेजु बलु मुखछबि सोई ॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना ॥
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे। बिलसत बेतस बनज बिकासे ॥
सम दम सञ्जम नियम उपासा। नखत भरत हिय बिमल अकासा ॥
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी। स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी ॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा। सहित समाज सोह नित चोखा ॥
भरत रहनि समुझनि करतूती। भगति बिरति गुन बिमल बिभूती ॥
बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं। सेस गनेस गिरा गमु नाहीम् ॥
दो. नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति ॥
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति ॥ 325 ॥
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू ॥
लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीम् ॥
दौ दिसि समुझि कहत सबु लोगू। सब बिधि भरत सराहन जोगू ॥
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं। देखि दसा मुनिराज लजाहीम् ॥
परम पुनीत भरत आचरनू। मधुर मञ्जु मुद मङ्गल करनू ॥
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू ॥
पाप पुञ्ज कुञ्जर मृगराजू। समन सकल सन्ताप समाजू।
जन रञ्जन भञ्जन भव भारू। राम सनेह सुधाकर सारू ॥
छं. सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को ॥
दुख दाह दारिद दम्भ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को ॥
सो. भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति ॥ 326 ॥
मासपारायण, इक्कीसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
(अयोध्याकाण्ड समाप्त)